Dakani sadhna
डाकिनी की साधना तामसी साधना विधि
तामसी विधि की डाकिनी साधना श्मशान में करने का विधान है। यहां श्मशान' शब् का
निहितार्थ समझना चाहिए। 'श्मशान' शब्द का अर्थ है-जहां जीवन की हलचल, अर्थात् वैचारक हलचल नहीं हो। नग्न साधना का अर्थ है कि आप सभी भौतिक आवरणों का वहां त्याग कर दें।
ये दोनों नहीं हैं, तो श्मशान में जाकर भी डाकिनी सिद्धि नहीं होगी। यदि प्रकट हो गयी,तो आप भयानक खतरे में होंगे।
भूत-प्रेत, पिशाचादि शक्तियां, क्रोध, क्षुब्धता, हिंसात्मक भाव, उत्तेजना की चरम सीमा
और भय-इस देवी के अन्तर्गत रहते हैं । इनके प्रकटीकरण से पूर्व इन सवका उत्पात साधक को परेशान करता है, इसलिए जब इसकी सिद्धि करने जायें, तो पूरी दृढ़ता होनी चाहिए। दुर्बल हृदय डाकिनी की साधना नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न यह उठता है कि ऐसी भयानक शक्ति का आह्वान करके इसकी सिद्धि हम करे हीक्यों?
यह इसलिए की जाती है कि एक डाकिनी की सिद्धि से 'मूलाधार' की सभी शक्तियों की
साद्ध अत्यन्त सरल हो जाती है। यह कहा जाये कि सभी स्वयं सिद्ध हो जाते हैं, तो गलत न होगा (थोड़ा ही प्रयत्न करना पड़ता है) और जिसने भी मूलाधार की सभी शक्तियों को सिद्ध कर लिया, उसके लिए सभी चक्रों की सिद्धि अत्यन्त सरल हो जाती है। दूसरे शब्दों में कहें, तो यह शॉटकट है।
साधना विधि
काली रात, अर्थात् कृष्णपक्ष की रात में प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक अर्द्धरात्रि में
तन्दूर,
लाल कपड़ा, मदिरा, मछली (पोठा), रक्तचन्दन, लाल पुष्प (ओड़हुल/गुड़हल) का
फूल, चावल, दही और चमेली के तेल का दीपक लेकर जायें। माला या चढ़ाने वाला पुष्प
गुड़हल
या चमेली या बेला या केवड़ा का होना चाहिए।
नदी के किनारे दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बैठें सामने सिन्दूर एवं चन्दन से भैरवी
बनाकर उसमें दीपक जलायें । महाविष्नेश्वर श्री गणेशजी का ध्यान लगाकर 21 बार
ॐ০555म्' मन्त्र का जाप करें। इससे पूर्व भृकृटि पर सिन्दूर और चन्दन का तिलक लगायें।
इस जाप के बाद सिन्दूर में चावल मिलाकर चारों और घेरा बनायें और गणेशजी से प्रार्थना करें कि वे बुरी शक्तियों से आपको एवं आपकी साधना को बचायें। तत्पश्चात् दीपक की लौ में ध्यान लगाकर मन्त्र पढ़ते हुए डाकिनी देवी,का आहान करें I
इनका स्वरूप कालीजी के रुद्र रूप के समान होता है। चार भुजाओं में एक में कटा हुआ सर
दूसरे में रक्तरंजित तलवार, तीसरे में त्रिशूल, चौथे में रक्त से भरी खोपड़ी होती है, जिससे
रक्तपान
करती रहती हैं। इस देवी का रंग बिल्कुल काला होता है। पैरों में महावर और तलतां
भी महावर होती है। इससे ये लाल होते हैं। हथेलियां भी महावर से लाल होती हैं। देवी के इसी
भावरूप
का ध्यान लगाकर मन्त्र पढ़ा जाता है।
यह क्रिया प्रतिपदा से अमावस्या तक चलती है। सावधान! इस समय समस्त भौतिक
इच्छाओं
एवं उपलब्धियों का त्याग करके साधना करें। जब देवी प्रकट हो जायें, तो उनसे उनकी शक्तियों का वरदान मांगें और उनसे कहें--' हे माता! आप अपना पुत्र समझकर हमारी रक्षा करें दुर्व्यसनों से दूर रखें और हमें शक्ति दें कि हम सिद्धियों की प्राप्ति कर सकें
डाकिनी की तामसी साधना-2
स्थान-
श्मशान या निर्जन वन।
समय-अर्द्धरात्रि कृष्ण चतुर्दशी।
सामग्री-मांस, मदिरा, रक्तचन्दन, खोपड़ी, लालरतक्तिम पुष्प, कुमकुम, सरसों का तेल,
नारियल
का गोला, किशमिश, सूखे मेवे, लाल चन्दन की माला आदि।
साधना विधि-
किसी श्मशान या निजंन वन में सिन्दूर और सरसों के तेल को मिलाकर साधनास्थल को मूलमन्त्र को पढ़ते हुए घेरा लगायें। सामने मूर्ति स्थापित करके तेल का दीपक जलाकर देवी की पूजा करें। पूजा में उपर्युक्त सामग्री प्रयुक्त करें। तत्पश्चात् खोपड़ी स्थापित करके सिन्दूर लगाकर उसकी भी पूजा करें। पूजा के बाद पूर्वोक्त विधि से नारियल की जटाओं
को जलाकर हवन करें। हवन मूल मन्त्र से 108 बार करें।
मन्त्र-ओऽऽऽऽऽम् क्रीं क्रीं क्रीं क्लीं ह्रीं ऐं डाकिनी हुँ हुँ हुँ फट् स्वाहा ।
पूजा में प्रत्येक मन्त्र के बाद खोपड़ी पर तेल-सिन्दूर आदि लगायें।
डाकिनी की साधना का अर्थ इस शक्ति को नियन्त्रित करना है। इस शक्ति के नियन्त्रित होने
पर साधक भूत, प्रेत, पिशाच आदि को नियन्त्रित कर सकता है। वह इसे किसी व्यक्ति के कल्याण
के लिए प्रयुक्त कर सकता है। डाकिनी की साधना में पूजा होम के बाद 1188 मन्त्र से प्रारम्भ
करके प्रतिदिन 108 मन्त्रों को बढ़ायें और 108 दिन तक करें। समय का निर्धारण सिद्धि
मिलने तक का है।
लाभ-डाकिनी श्मशान या नीरवता की शक्ति है। यह भूत, प्रेत, पिशाच,
किन्नर, गन्धर्व सभी को वश में करती है। सन्तान धन, भोग के साथ-साथ यह ज्ञान एवं बुद्धि
तथा कलात्मकता को भी प्रदान करती है। इसकी सिद्धि के बाद साधक इससे असम्भव कार्यों
को भी सिद्ध कर सकता है।
विशेष
1. सभी सावधानियां पूर्ववत्।।
2. कामभाव पूर्णतया वर्जित है।
3. डाकिनी पहले साधक को डराती है, फिर तरहे – तरहे के
मोहक रूपों में भोग के लिए प्रेरित करती
है। इसके भय या प्रलोभन से बचें ।
4. जिसने खुद के मस्तिष्क को पूर्णतया निष्क्रिय करके खुद अपने रक्त
की प्रवृत्ति (गति आदि) का निरोध कर लिया, वही डाकनी का साधक बन सकता है। मस्तिष्क
को शून्य किये बिना डाकिनी सिद्ध नहीं होती।
5. निरन्तर अभ्यास से डाकिनी को सिद्ध किया जा सकता है। यदि कभी
साधना भंग हो गयी, तो भी निराश न हों, प्रयत्न पुनः जारी रखे।
6. इस सिद्धि से भविष्यदर्शन होता है। अपना भी दूसरों का भी किसी
को उसका भविष्य न बतायें।