माँ तारा साधना
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श्री तारा यंत्र
महाविद्याओं में 10 महाविद्याओं का
वर्णन किया जाता है जिनमें भगवती तारा द्वितीय स्थान
पर हैं। समस्त भारत
में आदि विद्या काली की उपासना का क्षेत्र व्यापक है, परन्तु तारा देवी का क्षेत्र पर्याप्त रूप से विस्तृत है। यह एक रहस्यमयी विद्या
है । तारा को उग्र तारा भी कहते हैं । आज
भी तारा शक्ति की उपासना तांत्रिक पद्धति से होती है।
इसे 'आगमोक्त पद्धति' कहते हैं। इसकी साधना विशेषकर बंगाल
तथा मिथिला क्षेत्र में की जाती है।
तारा महाशक्ति शून्यरूप स्थित ब्रह्म शक्ति है। भगवती
तारा की उपासना सर्वप्रथम महर्षि वशिष्ठ ने की थी इसीलिए तारा साधना को वशिष्ठसंहिता भी कहा जाता है। इन्हें अदृश्य शक्ति से 'चीना-चार'
नामक
तांत्रिक पद्धति से भगवती तारा की उपासना की प्रेरणा
मिली तथा इसी विधि से इन्होंने तारा सिद्धि प्राप्त की।
प्राचीन समय में चीन, तिब्बत तथा लद्दाख में तारा की उपासना काफी
प्रचलित रही है। तारा का प्रादुर्भाव मेरु पर्वत के
पश्चिम में 'चोलना' नामक नदी के तट पर हुआ। जैसा कि स्वतंत्र तंत्र में वर्णित है।
मेरोः पश्चिमो
कूलेनु चोलताख्यो हृदो महान ।
तत्र जज्ञे
स्वयं तारा देवी नीलमस्वती ।
महाविद्या साधना तंत्रोक्त विधि से जितनी सरल
तथा सहज है, उतनी वैदिक पद्धति से
नहीं हैं। वैदिक पद्धति में नाना प्रकार के कर्मकाण्ड तथा शुद्धिकरण इत्यादि में
काफी समय लगता है, जबकि तांत्रिक
विधि काफी सरल तथा शीघ्र फलकारक है। इसी कारण तारा शक्ति
की तांत्रिक साधना का ज्यादा विकास हुआ तथा इसके साधकों की संख्या आज भी हजारों-लाखों में पायी जाती है। 'महाकाल संहिता'
के
मुख्य काली खण्ड में तारा शक्ति की चर्चा
चामत्कारिक शक्ति के रूप में की गई है । इसी प्रकार 'महाकाल संहिता'
के
काम कलाखण्ड में भी तारा रहस्य का वर्णन
है। इस शक्ति की उपासना रात्रिकालीन है। चैत्र शुक्ल नवमी की रात्रि तारारात्रि
कहलाती है।
चैत्रे मासि
नवभ्यां तु शुक्लपक्षे तु भूपते।
क्रोधरात्रिमहेशानि
तारा रूपा भविष्यति
बिहार के सहरसा जिले के 'महिषी' नामक
ग्म में उग्रतारा शक्तिपीठ विद्यमान है। यहां पर
तारा की एकजटा तथा नील सरस्वती की तीनों मूर्तियां विद्यमान हैं। मध्य भाग में
बडही मूर्ति तथा बगल में दोनों तरफ़
छोटी-छोटी मूर्तियां विराजमान हैं। ऐसा कहा जाता है कि महर्षि वशिष्ठ ने यहां पर तारा सिद्धि प्राप्त की थी।
इसी प्रकार पश्चिम बंगाल के रामपुर हाट रेलवे
स्टेशन से पांच किलोमीटर की दूरी पर भी तारा पीठ नाम
का एक शक्तिपीठ है। कहा जाता है कि महर्षि वशिष्ठ को आगमोक्त
पद्धति से तारा का संकेत यहीं प्राप्त हुआ था। यह तारापीठ प्राचीन
उत्तरवाहिनी द्वारका नामक नदी के किनारे भयंकर श्मशान में
स्थित है । यहां तारा की प्रतिमा अति चमत्कारी व
रहस्यमय है। मूल रूप से इस प्रतिमा में दो हाथ है। इस रूप के दर्शन प्रत्येक दिन
रात्रि में 9 बजे से 9.30 बजे तक ही होते हैं। जिसमें पंक्तिबद्ध
दर्शनार्थी नौ-दस की संख्या में आते हैं और तुरन्त दर्शन करके निकल जाते हैं। इस तरह के अद्भुत रूप पूर्व में या
बाद में ऊपर से
स्वर्ण, रजत आदि के आवरण से मण्डित (तारा) रूप के ही दर्शन किये जाते हैं। यह
वही शक्तिपीठ
है, जहां भैरव स्वरूप नाथ वामदेव को सिद्धि प्राप्त हुई थी। मां भगवती के
साक्षात दर्शन
हुए थे। वह बाद में वामा क्षेपा के नाम से प्रसिद्ध हुए। आज भी तारा पीठ के बजाय वामा क्षेपा की
बहुत-सी कहानियां व्याप्त हैं। यहां तांत्रिक उपासना की प्रधानता है। कहा जाता है कि
भगवान शंकर काशी में मणिकर्णिका घाट पर मरने वालों के कानों में 'तारक' मंत्र
देते हैं। यह तारक मंत्र 'राम ' शब्द है। राम
नाम उपनिषद वाल्मीकि व्यासादी से तुलसीदास तक 'राम' को तारक यानी
तारने वाला बताया है। आज भी भारत के जन-जन में सीताराम के नाम जिहा पर विद्यमान हैं। यथा-। -'सीता राम'
के
बीच 'ता सीता
शब्द में तथा 'र' राम शब्द से मिलकर 'तारा'
बनता
है। यही शक्ति विश्व को भव से तारने वाली है तथा उसे यहां तारा नाम से जाना जाता है। यहां तारा साधना
अपने मंत्रों तथा न्याससहित इस प्रकार वर्णित है ।
तारा ध्यान
प्रत्यालीढ़पदापिताङ
नशवहृदू घोराइ्टाहासापरा।
खडूगेन्दीवरकत्त्रिखर्षर
भुजाहुंकार वीजोदयव् ।।
स्वर्णनील विशाल
पिंगल जटा जूटैक नागैर्युता ।
जाडूयंन्यस्थ
कपालके त्रिजगतां हन्त्युग्रतारा स्वयम्।॥
अर्थात हे माता आपकी चतुर्भुजाएं हैं। दोनों
हाथों में खड्ग और कर्तरी (कैंची) तथा बा हाथ
में कंपाल तथा खप्पर है। बाल पीले रंग के, तीन नेत्र तरुण सूर्य के समान तेजोम और आभा से दीप्तिमान सुशोभित हो रहे हैं । आप जलती हुई चिता में शव
पर स्थित
तथा एक पैर आगे किए हुए वीरासन पर बैठी है। शेर
का चमें तथा कौपीन धारण किए हुए हैं। जिहा
लपलपाती हुई चलायमान है। भयकर डरावना स्वरूप, घोर रूप में
हुंकार करती हुई भक्तों की अभय वरदायिनी हैं। आपकी
चारों भुजाओं
में सर्प लिपटे हुए हैं। मैं ऐसी भक्तवत्सला मा
तारा का ध्यान करता हूं।
मूल मंत्र
ॐ हीं स्त्रीं हुं फटू ।
तारा कवच
प्रणवों में
शिराः पातु ब्रह्मरूपा महेश्वरी।
हींकारः पातु
ललाटे बीजरूपा महेश्वरी।
स्वीकार
पातुवदने लज्जारूपा महेश्वरी।
हुंकारः पातु
हृदय भवानी शक्ति रूपधृक।
फटकारः पातु
सर्वागे सर्वसिद्धि फलप्रदा।
नीलाभ्यांपातु
देवेशी मण्डयुग्में पातु महेश्वरी ।
लम्बोदरी सदा
स्कन्धयुग्में पातु महेश्वरी।
व्याघ्रचर्मावृत्त
कटिः पातु देवी शिवप्रिया।
रेक्तवर्तुलनेत्रा
व कटिदेशे सदावतु I
ललज्जिह्वा सदा
पातु नाथौ मां भुवनेश्वरी ।
करालास्या
सदापातु लिंगे देवी हरिप्रिया।
पिगौग्रेकजटा
पातु जंघायां विघ्ननाशिनी।
खड्गहस्ता
महादेवी जानुचक्रे महेश्वरी।
नीलवर्णा
सदापातु जानुनी सर्वदा मम।।
नाग कुंडल
धात्रीं च पातु पादु युगे ततः।।
नाग हारधरा देवी सर्वांगे पातु सर्वदा।
नाग कंकण धराव
देवी पातु प्रान्तर हेदशतः।
जल स्थलं
चान्तरिक्षे तथा च शत्रुमध्ययतः।
सर्वदा पातु मां
देवी खड्गहस्ता जाय प्रदा।
पूजा काली की भांति ही निम्न प्रकार से की जाती
है । इनकी साधना में आसन पर लाल रंग के ऊनी
या सूती कपड़े का प्रयोग किया जाता है। इसका
पुराश्चरण तीन लाख जप होता है। अस्सी माला प्रतिदिन जप करने से चालीस दिन में तीन लाख के लगभग हो जाता है। दसांश हवन तीस हजार, आहुति
तीन हजार, तर्पण तीन सौ, मार्जन तीस। ब्राह्मण व कन्या भोज कुल 3,33,330
संख्या होती है। आप चाहें तो एक हजार का भी कर सकते हैं। 80
माला की जगह 85 माला जप करना ज्यादा ठीक
होता है। आसन पर बैठकर देवी की षोडूशोपचार पूजा करें, ध्यान करें,
मत्र
जप करें था विनियोग, न्यास व कवच
इत्यादि का पाठ करें। जप पूर्ण होने के बाद हवन, तर्पण मार्जन इत्यादि की क्रियाएं करें।
विनियोग
ॐ अस्य श्रीमहोग्रतारा मंत्रस्य अक्षोभ्य ऋषिः,
वृहतीछन्दः, श्रीमहोग्रतारा देवता, हूं
बीजं,
फट शक्तिः, हर्त्रीं कीलकं,
श्रीतारा देवी प्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ।।
ऋष्यादिन्यास
ॐ अक्षोभ्य ऋषये नमः शिरसि, वृहती
छन्दसे नमः मुखे। श्री महोग्रतारा देवतायै नमः
ह्ृदि, हुं बीजाय नमः
गुह्ये | फट् शक्तये नमः पादयोः। हस्त्रीं कीलकाय नमः
नाभौ । विनियोगाय
नमः सर्वांगे।
करन्यास
हां
अंगुष्ठाभ्यां नमः । हरीं तर्जनीभ्यां नमः ।
हूं मध्यमाभ्यां
नमः । हैं अनामिकाभ्यां नमः ।
हो कनिष्ठाभ्यां
नमः । हुः करतलपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादिन्यास
ॐ हां हृदयाय
नमः । हृीं शिरसे स्वाहा।
हूं शिखायै वषटू
। हैं कवचाय हुम्।
हौं नेत्रत्रयाय
वौषट्। हः अस्त्राय फट्।
तारा ध्यान
प्रत्यालीढ़पदापिताङ
नशवहृदू घोराइ्टाहासापरा।
खडूगेन्दीवरकत्त्रिखर्षर
भुजाहुंकार वीजोदयव् ।।
स्वर्णनील विशाल
पिंगल जटा जूटैक नागैर्युता ।
जाडूयंन्यस्थ
कपालके त्रिजगतां हन्त्युग्रतारा स्वयम्।॥
उपरोक्त कालिका महाविद्या पूजन विद्यानुसार ही
समस्त तैयारी तथा स्थान इत्यादि शुद्ध
करके पूजा विधि तथा मूर्ति स्थापना के बाद
नियमित साधना करके हवन तथा तर्पण-मार्जन
इत्यादि की सभी क्रियाओं को करना चाहिए तथा
अन्त में कन्याओं को भोजन व उन्हें
दान-दक्षिणा इत्यादि से प्रसन्न करें तो मां
तारा वरदान देकर भक्त को सर्वभयों से मुक्त कर