MOOLADHAR CHAKRA
शरीर के मुख्य ऊर्जा चक्र और मूलाधार चक्र
सुषुप्ना नाड़ी की ऊर्जाधारा में कुछ भंवर होते
हैं । ये भंवर इसकी ऊर्जाधारा की गहि से इड़़ा-पिंगल
के संगम से उत्पन्न होते हैं और ऐसा माना जाता है कि इन सभी बिन्दुओं पर ब्रह्माण्डीय ऊर्जा बिन्दुओं का प्रभाव होता है, इसलिए
ये ऊर्जा चक्र बनते हैं। इन ऊर्जा चकों की प्रवृत्तियां अलग-अलग विशिष्ट गुणों से युक्त होती हैं। इनकी गति में
सामान्यावस्था में संतुलन
नहीं होता। किसी में कोई चक्र प्रबल होता है, तो किसी में
कोई। इसी के अनुपात क्रम में व्यक्तिNजीव या पदार्थ के परमाणुओं के गुण
व्याप्त होते हैं।
मुख्य रूप से इन चक्रों की संख्या नौ है,
परन्तु
योग तन्त्र की विधियों में सात को ही मुख्य मानते
हैं कुण्डलिनी के सर्प मुख को/एक-एक करके इन्हीं चक्रों में प्रविष्ट कराया जाता
है।
ये चक्र इस प्रकार हैं-
1. मूलाधार चक्र
2. स्वाधिष्ठान चक्र
3. मणिपूरक चक्र
4. अनाहत चक्र
5. विशुद्ध चक्र
6. आज्ञा चक्र
7. सहस्रार चक्र
मूलाधार
चक्र संरचना
जैसा कि हम पूर्व ही स्पष्ट कर आये हैं कि जहां जननेन्द्रिय का सर्पिल मूल
सुषुम्ना नाड़ी से मिलता है, अर्थात्
रीढ़ की हड्डी में-जहां त्रिकास्थि कमर एवं रीढ़ की हड्डी का जोड़ होता है-वहां से नीचे तिकोनी अस्थि संरचना
होती है। मूलाधार का स्थान यही है।
शास्त्रों में इसे चार दलों वाले रक्त वर्ण की
पंखुड़ियों से युक्त बताया गया है। वस्तुतः इसे चार
पंखुड़ियों वाला कमल बताया गया है। इन पखुड़ियो के अन्दर पीले रंग का चौकोर परागमण्डल
है। होती हैंI लिंगमूल
पर बीजरूप- कुण्डलिनी इसी के केन्द्र से जुड़ी होती है । इसकी पंखुड़ियां नीचे की ओर झुकी, इसके पीले रंग के पराग वर्ग आठ' शूलों, अर्थात्
उभरे हुए नुकीले स्वरूप में उपस्थिति बताई गयी है।
मूलाधार
के देवी-देवता
हम पूर्व ही बता आये हैं कि जिन्हें हम
देवी-देवता के रूप में आकृतियां बनाकर पूजते हैं। वे
केवल उस तत्त्व के ब्रह्माण्डीय तरंगों के गुणात्मक प्रतीक हैं। वे मनुष्याकृति
में या मूर्ति अधवा
चित्र के स्वरूप में कहीं नहीं हैं। ये चित्र
भी प्रतीकात्मक हैं और गुणों के आधार पर बनाये गये हैं।
ये किस प्रकार प्रतीकात्मक है और इनके स्वरूप की व्याख्या क्या है, यह
चक्रों की व्याख्या के कम में ही दिये गये हैं। यहां हम
मूलाधार में स्थित देवी- देवता या गुणों को स्पष्ट करेंगे और
उनके स्थानों का निर्धारण करेंगे।
योग
के अनुसार मूलाधार के देवता
योग के अनुसार मूलाधार के कमल के बाहरी दल
रक्तवर्ण के हैं, अर्थात् ये तामसी गुणों से
युक्त हैं। तामसी गुणों की प्रवृत्ति जड़तावादी होती है । इसी कारण इन दलों का मुख
नीचे की और झुका हुआ है।
कमल के बीच का परागमण्डल (कमल के बीच का आधार
भाग) पीतवर्ण का है और यह वगीकार है।
इसमें आठ शुल हैं, अर्थातु आठ नुकीली ऊपर की ओर उठी हुई पर्वतनुमा कृतियां हैं। पीला रंग रजोगुणी है, अर्थात् इसमें
रमण अथवा भोग की प्रवृत्ति है। इस धराभाग शुल
वे भाग हैं, जिन्हें भोग की प्रवृत्ति के जनक गुण माना जाता
है। यथा-इच्छा, कामना, मोह, प्रेम, हिंसा,
असन्तुष्टि
आदि।
मूलाधार के कमल के मध्य में केन्द्र में एक
त्रिकोण का रंग लाल है। इसमें कामदेव. अर्थात् कामना
की बीजशक्ति का आगार है। त्रिकोण का निचला बिन्दु अग्नि ताप उत्पन्न करने वाली शक्ति का बीज है । बायीं ओर ऊपर के बिन्दु पर चन्द्रमा, अर्थात्
शीतलता के साथ आनन्दित करने वाली शक्ति का बीज है।
दायीं ओर ऊपर का बिन्दु सूर्य की भांति तेज बीज
विद्यावानहै। त्रिकोण की ऊपरी भुजा- जहां
सुषुम्ना की ऊर्जा धारा से मिलती है-वहां इद्र अपनी
वज्र शक्ति, अर्थात् विद्युतीय शक्ति के साथ विद्यमान है।
त्रिकोण के मध्य में एक केन्द्र है। इसी केन्द्र
बिन्दु से सुषुम्ना का मूल जुड़ा हुआ है। इस बिन्दु में बीचरूप ब्रह्मा का निवास है। इनस मन्त्र इस प्रकार बनता है।
ॐ नमः
वं शं षं सं क्लीं लं फट् स्वाहा ।
तांत्रिक विधि में इन मन्त्रो का मानसिक या ध्वनि
जाप किया जाता है।
योग-विवरण
इसमें कहा गया है कि मूलाधार का चक्र पुष्प चार
लाल रंग की पंखुड़ियों, अर्थात् चार आयोगणी
प्रवृत्तियों से युक्त है, जो जड़ता की और, स्वाभाविक रूप
से ही अग्रसर है। इनके द्वारा स्थूलता का निर्माण करने
वाली कारणभाव शक्तियों का संकेत किया गया है। बीच के वर्ग का
अर्थ धरातल है, पीला रंग रमण या भोग का भाव है। इस भाव
में आठ शूल उन मानसिक भावों के (इच्छा,
मोह,
कामना,
तृष्णा,
असन्तुष्टि
आदि) हैं, जिनसे रमणभाव का उद्भव होता है। इन्हें शूल
इसलिए कहा गया है कि ये चुभते ही मीठे दर्द से ग्रसित कर देते हैं।
इससे अग्नि बिन्दु उद्वेलित होता है और
दाहक-शक्ति का उद्भव होता है। ये बायें से, अर्थात् वामरेखा
से चन्द्रमा की ओर शीतलता के लिए बढ़ती है। वहां यह आहलाद से युक्त होकर सूर्य बिन्दु पर ज्येष्ठा रेखा से पहुंचती है। तब यह शक्ति सूर्य की
भांति तेजोमय हो जाती है। यह वहां से रौद्रा
द्वारा पुनः अग्नि तक पहुंचती है और तब कामशक्ति के बीजरूप में त्रिकोण को उद्वेलित करती है। तमोगुणी त्रिकोण
वरातल तब वामावेशित होता है और इसमें करोड़ों सूर्य का तेज
भर जाता है। इसमें विष्णु की शक्ति, अर्थात् आत्मा की शक्ति सुषुम्ना से
पहुंचती है और ब्रह्मबीज-शक्ति उत्पन्न होती है।
इसमें समस्त वैदिक-विज्ञान समाहित होता है, अर्थात्
ब्रह्माण्डीय सृष्टि की समस्त क्रियात्मक प्रक्रिया
इसमें समाहित होती है। यह शक्ति ऊपर की ओर भागती है। और
इन्द्र बिन्दु पर पहुंचकर भोक्ताशक्ति के रूप में बदल जाती है। तब उस विद्युतीय
आवेश का जन्म होता है, जिसे इन्द्र ने
धारण कर रखा है, अर्थात् वज्र का। यह वज्र ही शरीर के अवयवों को आवेशित करके वीर्य का निर्माण करता है।
मूलाधार-सिद्धि
और लाभ
मूलाधार चक्र को कुण्डलिनी-साधना में सर्वाधिक
महत्त्व दिया जाता है। आधार के बिना कोई ऊंचाई नहीं
होती और न ही बीज के बिना वृक्ष बनता है। जिस शक्ति को सुषुम्ना मे ऊपर की ओर उठाया जाता है, उसका उद्भव मूलाधार में ही होता है।
इसीलिए इसे आधार मूल, अथाद् मूलाधार
कहा जाता है।
यह साधक को इन्द्र की तरह भोक्ता बनाने वाली,
ऐश्वर्य,
शक्ति,
पराक्रम,
शौर्य
एवं बौरता प्रदान करने वाली, स्थायित्व,
संकल्प,
दूढ़ता
कर्मठता, विश्वास आदि से सम्पन्न करने वाली, लक्ष्यवेध की
शक्ति, धन, स्वास्थ्य आदि प्रदान करने वाली है। इससे
इन्द्रिय संयम की शक्ति विकसित होती है।
ये पूर्णतः साधक के वश में रहती है। इससे ओज की वृद्धि होती है।