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Sunday 18 April 2021

शक्ति की उपासना

 

शक्ति की उपासना

शक्ति साधना में साधक को स्वयं में काफी मानसिक तथा शारीरिक करना परमावश्यक हो जाता है। इसके लिए उसे किसी योग्य गुरु से विधिवत दीक्शा लेकर् शुभ महुरत मे साधना आरम्भ करना चाहिए।मूल मत्र का एक-एक  अक्शर  उच्चारण करके अभ्यास कर लेना चाहिए, ताकि प्रयोग के समय उच्चारण में जरा भी अशद्धि हो, अन्यथा शक्ति का दुष्प्रभाव अवश्य पड़ता है। इसके साथ-ही-साथ साधक को सिद्धियों के सभी नियमों का भी पालन करना चाहिए तथा अपना नित्यकर्म पांतांजलि योग दर्शनम के योग साधना के अष्टांग योग के अनुसार यम-नियम-संयम इत्यादि का पूर्णतया पालन करना चाहिए।

साधक को चाहिए कि वह प्रथमावस्था में शुद्ध जल से स्नान करके नए या धुले हुए वस्त्र धारण कर, साधना में प्रवृत्त हो लाल ऊनी या कुश का आसन लगाकर पद्मासन की स्थिति में पूर्व या उत्तराभिमुख होकर बैठे। तत्पश्चात आचमन प्राणायाम करके अपने गुरु का ध्यान करें।

गुरुभ्यो नमः।"

उपरोक्त मंत्र बोलते हुए मस्तक झुकाकर प्राणायाम करें तथा निम्नलिखित मंत्रों से सूचित स्थानों अंगों को तत्व मुद्रा (मध्यमा, अनामिका तथा अंगुष्ठा के अग्र भाग को मिलाने से तत्व मुद्रा बनती है) द्वारा स्पर्श करते हुए वन्दना करें।

दाएं कंधे पर   : गुंगुरुभ्यो नमः।

बाएं कंधे पर   : गं गणपतये नमः।

दाईं जांघ पर   : शं क्षेत्रपालायै नमः।

बाईं जांघ पर   : दुं दुर्गायै नमः।

हृदय पर   : पं परमात्मने नमः।

तत्पश्चात यदि वैष्णव मंत्र हो तो : सहस्रार हुं फट् स्वाहा।

शैव मंत्र हो तो   : श्ली पशु हुं फट् स्वाहा।

उपर्युक्त में से या अन्य किसी प्रकार

के मंत्र हेतु ब्रह्मास्त्र मंत्र    : तपः सत्यात्मने अस्त्राय फट्

 

मंत्र जाप करते समय बाई हथेली से दाएं हाथ की कोहनी से हथेली तक तथा दाएं हाथ से बाएं हाथेली की कोहनी से हथेली तक का स्पर्श करें और ' सत्यात्मने अस्त्राय फट् ।। बोलते हुए तीन बार ताली बजाने का उपक्रम करें तथा चारों दिशाओं में मूल मंत्र से 'चुटकी बजाते हुए दिग्बंधन करने का उपक्रम करें। इसके बाद साधक को बाहरी शारीरिक शुद्धि हेतु निम्न मंत्रों को पढ़ना चाहिए।

 

             अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिताः।

ये भूता विघ्नकारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया।।

अपकार्मन्तु भूतानि पिशाचाः सवदिशम्।

सर्वेषाम विरोधेन पूजा कर्म सभारंभे।।

 रोक्त मंत्र पढ़कर साधक बाह्य स्थान शुद्धि के पश्चात सभी दिशाओं में प्रणाम करें तथा बाएं पैर की एड़ी पृथ्वी पर तीन बार हल्के से पटके।

इसके बाद पूजा तथा सिद्धि प्राप्ति के अधिकार हेतु भैरव से निम्न श्लोक द्वारा आज्ञा प्राप्त करें।

 

 

तीक्ष्णद्रष्ट्र महाकाय कल्पांत दहतोपहम्।

भैरवाय नमस्तुभ्यं अनुज्ञां दातुमहर्सि ।।

 मन में यह धारणा करें कि भैरव ने आज्ञा प्रदान कर दी है, तब दीपक की स्थापना कर उसकी पूजा करें।

भो दीप! देवस्वरूपम कर्मसाक्षी हृयविघ्नकृत।

यावत कर्म समाप्तिः स्यात तावत त्वं सुस्थिरो भव ।।।

 अब साधक पहले से स्थापित प्रतिमा, चित्र अथवा यंत्र को अपने इष्ट देव के रूप में ध्यान करें तथा संकल्प मंत्र से यथास्थान तिथि, समय तथा प्रयोजन इत्यादि बोलकर साधना प्रारम्भ करें।

संकल्प

विष्णुविष्णुविष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य, विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्राह्मणो द्वितीये परा॰, श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमवंतरे, अष्टाविशतितमे, कलियुगे कलिप्रथम चरणे भारतवर्षे...अमुक स्थाने श्री शालिवाहनशके ...संवत्सरे ...अयने ...ऋतौ ...मासे ...पक्षे ...तिथौ ...वासरे ...गोत्र ...ममात्मनः श्रुतिस्मतिपुराणोक्त फल प्राप्यर्थ श्री... देवीप्रीत्यर्थ पूजन महं करिष्ये।

उपरोक्त संकल्प हाथ में जल, अक्षत तथा पुष्प लेकर करें। रिक्त स्थानों में समय. वार दिन, मास. गोत्र तथा अपना नाम इत्यादि बोलने के बाद जिस देवता की पूजा करनी हो. उसका नाम लेकर जल छोड़ें।

पूजन विधि

पूजा करने वाला साधक समर्पण से पहले अपना मूल मंत्र या इष्ट मंत्र बोले, तत्पश्चात पूजन क्रिया आरम्भ करे।

 

(इष्ट मंत्र एक बार पढ़ें)

1. (अपना इष्ट मंत्र) आस्वानं समर्पयामि।

2. (अपना इष्ट मंत्र) आसनं समर्पयामि।

3. (अपना इष्ट मंत्र) पाद्यं समर्पयामि।

4. (अपना इष्ट मंत्र) अर्घ्यं समर्पयामि।

5. (अपना इष्ट मंत्र) आचमनीयं समर्पयामि।

6. (अपना इष्ट मंत्र) पंचामृत सहितं स्नानं समर्पयामि।

7. (अपना इष्ट मंत्र) वस्त्रोपवस्त्रे समर्पयामि।

8. (अपना इष्ट मंत्र) यज्ञोपवीतं समर्पयामि।

9. (अपना इष्ट मंत्र) गंध समर्पयामि।

10. (अपना इष्ट मंत्र) पुष्पाणि समर्पयामि।

11. (अपना इष्ट मंत्र) धूपं समर्पयामि।

12.(अपना इष्ट मंत्र) दीपं समर्पयामि।

13. (अपना इष्ट मंत्र) नैवेद्यं समर्पयामि।

14. (अपना इष्ट मंत्र)नीराजनं समर्पयामि।

15. (अपना इष्ट मंत्र) मंत्र पुष्पांजलि समर्पयामि।

16. (अपना इष्ट मंत्र) नमस्कारम् समर्पयामि।

17. (अपना इष्ट मंत्र) प्रदक्षिणां समर्पयामि।

इसके बाद संबंधित देवता के स्त्रोत इत्यादि का पाठ करें, फिर 'अनया पूजया श्री... देवः प्रीयाताम् मम्।' बोलकर जल छोड़ें।

 अब साधक मंत्र जप के प्रमुख अंगों में भू-शुद्धि, प्राण-प्रतिष्ठा, अंतर्मातृकायास और बहिर्मातृकांयास का बड़ा महत्व है। प्रतिदिन जप करने से पूर्व प्राणायाम के साथ यह क्रिया करने से साधक का चित्त परम निर्मल तथा मानसिक शांति बढ़ जाती है।

यह वेदों का मत है कि देवता की पूजा देवता बनकर ही की जानी चाहिए अर्थात् अपने इष्ट के स्वभाव गुणों को धारण करने वाला साधक ही साधना की चरम सीमा को प्राप्त करता है। देव आराधना के समय साधक को चाहिए कि वह स्वयं को यौगिक क्रियाओं प्राणायाम से शारीरिक मानसिक तौर पर शुद्ध पवित्र बनाकर ही साधना में प्रवृत्त हो, ताकि सफलता उसका वरण कर सके। सामान्य रूप से शरीर शुद्धि साधना इस प्रकार बताई गई है।

भूरसीत्यस्य प्रजापति ऋषिः मातका देवताः।

प्रस्तारपंक्तिश्छन्दः भूशुद्धौ विनियोगः।।

 यह कहते हुए पृथ्वी पर जल छोड़ें तथा सामने की ओर दोनों हाथों को फैलाकर प्रार्थना करें।

भूरसि भूमिस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य

भुवनस्य धत्री, पृथ्वीं यच्छ पृथ्वीं दुहं पृथवींम्भा हिंसीः।

 

भूतशुद्धि : दाई नासिका छिद्र बाई नासिका छिद्र को बंद करके वाम भाग से श्वास को अंदर खींचे तथा कहें।

मलशृंगाटज्जीवशिवं परमशिवे योजयामि स्वाहा।

जीवात्मा के शिव के साथ सायुज्य यानी एकी भाव मानकर दाहिने मका छिद्र से श्वास को अति मन्द गति से धीरे-धीरे छोड़ें।

आप नासिका के बाएं भाग से पूरक करें यानी श्वास अंदर खींचें तथा  श्वास अंदर खींचने के साथ 'यं' बीज का मन में 16 बार उच्चारण करें, फिर पूरा श्वास अंदर खींचने के बाद कम्भक में (यानी श्वास अन्दर रोकना) 64 बार 'यं' बीज को उच्चारण करने के साथ  संकोच शरीरं शोषय शोषय स्वाहा' बोलें तथा बाई नासिका छिद्र से 16 बार 'यं' बीज जपते हए श्वास छोड़ दें। तदोपरान्त नासिका के बाएं भाग से 'रं' बीज बोलकर संकोच शरीरं दह दह पच पच स्वाहा' बोलें तथा पूर्ववत '' बीज जपकर दाहिने भाग से श्वास को छोड़ें। अब '' से पूर्ववत दाएं भाग से पूरक तथा कुम्भक करें। निम्न मंत्र बोलते हुए रेचक करें।

चन्द्र मण्डलं विभावय विभावय स्वाहा।

अब बाई नासिका छिद्र से 'वं' बीज से पूरक कुम्भक करें तथा निम्न मंत्र बोलें।

परमशिवामृत वर्षय वर्षय स्वाहा।

अब पुनः साधक 'लं' बीज से पूरक तथा कुम्भक करके निम्न मंत्र बोलें।

शाम्भवशरीरमुत्पादयोत्पादय स्वाहा।

 पुनः पूर्वोक्त विधि से 'ही' बाईं ओर पूरक तथा कुम्भक करके निम्न मंत्र बोलें।

कारणशरीरमुत्पादयोत्पादय स्वाहा।

 तत्पश्चात 'हंसः सोहं' मंत्र से पूर्ववत दाहिनी तरफ से पूरक तथा कुम्भक करके निम्न मंत्रोच्चारण करें।

अवतर अवतर शिवपदाद जीव

सुष्मणपथेन प्रविशमूल शृगाटक मुल्लसोल्लस

ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल हंसः सोह स्वाहा।

 आत्मप्रतिष्ठा विधान : प्राणायाम में तीन शब्द प्रमुख हैंपूरक, कुम्भक, रेचक पूरक अर्थात श्वास अन्दर खींचना कुम्भक यानी श्वास को अंदर यथाशक्ति रोकना। रेचक यानी श्वास को रोकने के बाद बाहर छोड़ना, परंतु ध्यान रहे, जितनी वेग से श्वास खींचा जाता है, उसकी चौथाई मंद गति से श्वास छोड़ना चाहिए, अन्यथा नुकसान होता है। जो श्वास यानी स्वर दायां या बायां उस समय चल रहा हो, पहले उसी से पूरक करना चाहिए। अब जो स्वर चलता हो. उससे निम्न मंत्र बोलते हुए पूरक करें।

ऐं ह्रीं श्रीं।

अब साधक हृदय पर दाहिना हाथ रखकर 'आं सोह' मंत्र का तीन बार उच्चारण करें। तथा फिर इष्ट मंत्र द्वारा प्राणायाम करें।

अंतर्मातृकांन्यास (विनियोग)

अस्यन्तर्मातृकामंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छन्दः

मातृका सरस्वती देवताः, हलो बीजानि, स्वराः

शक्तयः हां कीलकं मातृकायां जपे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यास

अं ब्रह्मषये नमः आं 'शिरसि'

इं गायत्री छन्दसे नमः 'मुखे'

उं मातृका सरस्वती देवतायै नमः औं 'हृदये।

एं हल्भयो बीजेभ्यः नमः ऐं 'गुह्ये'

ओं स्वरशक्तिभ्यो नमः औं 'पादयोः'

अं क्षं कीलकाय नमः अः 'नाभौ'

विनियोगाय नमः सर्वांगे।

 करहृदयादिन्यास

                                      प्रथम बार            द्वितीय बार

अं कं खं गं गंघं आं             अंगुष्ठाभ्यां नमः             हृदयाय नमः

  इचं छं जं झंजई       तर्जनीभ्यां नमः                           शिर से स्वाहा

  उंटं ठंडं ढंणं ऊं                    मध्यमाभ्यां नमः            शिखायै वषट

  यं तं थं दंधं नं एं         अनामिकाभ्यां नमः                 कवचाय हुम

  पं फंबं भं मं औं       कनिष्ठाभ्यां नमः               नेत्रत्रयाय वषट

यं रं लं वं शं षं अंहं अः       करतलपृष्ठाभ्यां नमः     अस्त्राय फट

ध्यान

पंचाशल्लिपिभिर्विभज्य मुखदोर्हृत्पद्मवक्षः स्थलां,

भास्वन्मौलिनिबद्धचन्द्रशकलामा पीनतुंगस्तनीम्।

मुद्राभक्षगुणं सुधाय कलशं विद्यांच हस्तांबुजै,

बिणं विशदप्रभां त्रिनयनां वाग्देवतामाश्रये।।

अब निम्न क्रम से मातृकान्यास करें

  अं आं इंअं                       कंठे।

  कं खं गं ठं          हृदये।

डं  ढं णां फं           नाभौ।

ॐ बं  भं मं लं                       लिंगे।

वं शं षं सं             गुह्ये।

  हं क्षं            भ्रुवोर्मध्ये।

 

ध्यान

आधारे लिंगनाभौ हृदयसरसिजे तालुमूले ललाटे,

द्वे पत्रे षोडशारे द्विदशदशदले द्वादशाद्रे चतुष्के।

वासांते बालमध्ये डफकठसहिते कंठदेशे स्वराणां।।

सं तत्वार्थयक्तं सकलदलगतं वर्परूपं नमामि ।। 1।।

वर्णांगी वर्णमालांगी भारती भाललोचनम्

रत्नसिंहासनां देवीं वन्देऽहं सिद्धमातृकाम्।।2।।

 बहिमातृकान्यास (विनियोगः)

अस्य श्री बहिर्मातृकान्यासस्य ब्रह्मा ऋषिः, देवी गायत्री छन्दः बहिर्मातृका सरस्वती देवता, हलोबीजामि स्वराः शक्तयः विन्दाः कीलकम् बहिर्मातकान्यास जपेविनियोगः

ऋष्यादिन्यास

ब्राह्मणे नमः                   शिरसि।

गायत्रीछन्दसे नमः                  मुखे।

बहिर्मातृका सरस्वती देवतायै नमो        हृदये।

हल्भ्यो बीजोभ्यो नमो              गुह्ये।

स्वर शक्तिभ्यो नमः              पादयोः।

बिन्दुभ्यः कीलकेभ्यो नमो          नाभौ।

विनियोगाय नमः               सर्वांगे।

अं नमः                   शिरसि।

आं नमः                 मुखे।

इं नमः                 दक्षिणनेत्रे।

इनमः                वामनेत्रे।

उं नमः                दक्षिण कर्णे।

ऊं नमः                 वामकर्णे।

नमः             दक्षिण नासापुटे।

लूं नमः             दक्षिण कपोले।

लूं नमः               वाम कपोले।

एं नमः            उर्ध्वदन्तपंक्तौ।

ऐं नमः              अधोदंतपक्तौ।

ओं नमः              ऊोष्ठे।

औं नमः                अधरोष्ठे।

अं नमः                  जिह्वामूले।

अः नमः                 ग्रीवायाम।

इस  भांति साधक 'कं' से 'डं' तक '' तथा 'नमः लगाकर दाहिने कंधे, कोहनी. मणिबंध उंगलियों के मूल तथा उंगलियों के अग्रभाग पर न्यास करें। फिर बाएं हाथ के पांचों भाग पर ओम तथा नम: , लगाकर 'चं' से '' तक फिर दाहिने पैर और बायें पैर पर क्रम से हं से णं तक और तं से नं तक न्यास करें।

 

 

तत्पश्चात

पं नमः  दक्षिण कुक्षौ।

फं नमः  वाम कुक्षौ।

बं नमः      पृष्ठे।

भं नमः     नाभौ।

मं नमः     उदरे।

यं नमः      हृदये।

रं नमः      दक्षिण स्कंधे।

लं नमः    गलपृष्ठे।

बं नमः    वाम स्कंधे।

शं नमः      हृदयादि दक्षिण हस्तांतम्।

षं नमः    हृदयादि वाम हस्तांतम्।

सं नमः     हृदयादि दक्षिण पादांतम्।

हं नमः      हृदयादि वाम पादांतम्।

शं नमः        उदरे।

शं नमः      मुखे।

नोट : यहां सिर से मुख तक जो स्थान बताए गए हैं, उन पर तत्व मुद्रा से स्पर्श करें।

ध्यान

पंचाशद्वर्णमेदैर्विहितवदनदोः पादयक्हुक्षिवक्षो

देशां भास्वत्कपर्दाकलितशशि कलामिदुकुंदावदाताम्।

अक्षस्त्रक्कुभचितालिखितवरकरां त्रीक्षणामब्जसंस्था

मच्छाकल्पामतुच्छस्तनधभरां भारतीं तां नमायः।।

मालाशुद्धि विधान

माला संस्कार किए बिना किया गया जप अशुद्ध तथा सिद्धिकर नहीं होता। अतएव साधको को माला संस्कार स्वयं या गरु से करा लेना चाहिए। यहां हम माला शुद्धि विधान का वर्णन करते हैं, जो इस प्रकार है

सर्वप्रथम साधक गाय का ताजा दूध, दही, घृत और गोबर और प्रातःकाल का गाय का मूत्र इन सब को लें। एक नये मिट्टी के पात्र में डाल दें, फिर उसमें थोडी-सी कशा डालें।  साधक गायत्री मंत्र पढ़ते हुए इस पंचगव्य से माला का प्रक्षालन करे, फिर पीपल के पत्तों पर माला रखकर गंगाजल से स्नान कराएं। अब

माला हाथ में लेकर- अं आं ॠलूं अं अः कं हुंचं छं जं झंजंटं ठंडं ढंणं तं थं दं धं नं पं फंबं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ज्ञं क्षं ॐ।

 इन मातृका वर्णों का न्यास करें।

सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः।

भवे भवे नातिभवे भवस्य मां भवोदभवाय नमः।।

सर्वशक्ति स्वरूपिण्यै श्रीमालायै नमः, चन्दनं समर्पयाम्।

वासुदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः

रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणय नमो

बलविकरणाय नमो बलाय नमो

बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो

मनोन्मनाय          नमः।

सर्वशक्ति स्वरूपिण्यै श्रीमालायै अक्षतान समर्पयमि।

तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्

सर्वशक्ति स्वरूपिण्यै श्रीमालायै नमः, पुष्पाणि समर्पयामि।

 इसके बाद ऊपर लिखे मंत्र 'वाम देवाय नमः' इत्यादि बोलकर माला को धूप लगाएं तथा नीचे दिए मंत्र से माला को अभिमंत्रित करें।

ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम्

ब्रह्माधिप तिब्र ह्यणोऽधिप विब्रह्मा शिवो

मे अस्तु सदा शिवोम्।

फिर साधक अघोर मंत्र से माला को अभिमंत्रित करें। मंत्र निम्नलिखित है

अघोरेभ्योय घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः।

सर्वेभ्यः सर्वसर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः।।

 अब माला संस्कार पूर्ण हो गई तथा माला की प्रार्थना निम्न मंत्र से करने के बाद मूल मंत्र का जाप किया जाना चाहिए।

महामाये महामाले सर्वशक्ति स्वरूपिणि।

चतुर्वगस्त्वपि न्यस्तस्मान् मे सिद्धा भव।।

अविघ्नं कुरु माले त्वं गृहणामि दक्षिण करे।

जपकाले सिद्धर्थे प्रसीद मम सिद्धये।।

अब माला को गोमुखी में रखकर अथवा किसी वस्त्र से ढककर सावधानीपर्वक दान का ध्यान करते हुए मूल मंत्र का जाप करें। प्रतिदिन का जप संख्या निश्चित होनी चालित

त्वं माले, सर्वदेवानां प्रीविदा शुभदा भव।

शिवं कुरुस्व मे भद्रं यशो वीर्यन्य देहि मे।।

इस मंत्र के बाद ईश्वरार्पण करने के लिए निम्न मंत्र बोलकर जल छोड़ दें।

अनेन यथासंख्यक जपाख्येन कर्मणा,

श्री (अमुक) देवः प्रीयताम् मम।

मानसरोवर पूजा मंत्र

लं पृथिव्यात्मकं गंधं समर्पयामि।

हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि।

यं वाय्वात्मकं धूपं समर्पयामि।

रं वहन्यात्मकं दीपं समर्पयामि।

वं अमृतात्मकं नैवेद्यं समर्पयामि।

सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि।

साधक ध्यान दें, माला जपने से पहले तथा ध्यान के पश्चात मानसरोवर पूजा का विधान है। उपर्युक्त मंत्रों से भावनापूर्वक पूजा करनी चाहिए।

 

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