प्राचीन भारत में संस्कृत में वेदों की रचना हुई, जिनमें मानव की आध्यात्मिक उन्नति हेतु जीवन के सामान्य नियमों, दैनिक क्रिया एवं क्रियाओं से संबंधित मंत्रों का विधान है। जिनमें ऋग्वेद पूर्ण रूप से मंत्रों का व वेद प्रार्थनाओं का संकलन है। साधारणतया हमारे मस्तिष्क में यह बात आनी स्वाभाविक है कि इन मंत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई क्योंकि जिज्ञासा मानव-मन की प्रवृत्ति है। इस सृष्टि की उत्पत्ति 'शब्द' से हुई है। यह तथ्य सभी विद्वान पुरुष जानते हैं, जिस प्रकार आकाश में बिजली चमकने के साथ आवाज होती है। यह शब्द उत्पत्ति ही बिजली चमकने का कारण है तथा इस गर्जना के साथ प्रकृति तत्काल अपनी नई शक्ति रचनाक्रम से मौसम में परिवर्तन लाकर जलवृष्टि में सहायक हो जाती है। चूंकि प्रत्येक क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होना प्रकृति का सामान्य नियम है इसलिए प्रत्येक सक्रिय वस्तु या पदार्थ ही अपना अस्तित्व, इस ब्रह्मांड में कायम रख सकता है। निष्क्रियता को प्राप्त वस्तु या अवयव अपना अस्तित्व खोकर पंचतत्वों में ही विलीन हो जाता है, अर्थात उसकी मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार मंत्रों के प्रभाव से भी तत्काल सूक्ष्म या स्थूल प्रकृति या मानव के मन, मस्तिष्क व अन्य प्राणियों पर प्रभाव डाला जाता है। इन मंत्रों के उच्चारण से ब्रह्मांड में निहित कुछ शक्तियां सक्रिय होकर, ये कार्य सम्पन्न कराने में अपना योगदान करती हैं।
प्रसिद्ध विचारक व मनोवैज्ञानिक श्री अरविन्द के अनुसार वेदों में रहस्यवादी दर्शन और सिद्धांत भरे पड़े हैं। इन मंत्रों के देवी-देवता मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं के प्रतीक हैं। जैसे सूर्य बुद्धि का, अग्नि संकल्प तथा सोम अनुभूति का प्रतीक है। हमारे वेद प्राचीन यूनान के आराफिक और एल्युसियन के समान रहस्यवादी भावों से भरे हैं। मैं जो परिकल्पना कर रहा हूं, वह यह है कि ऋग्वेद एक महान अभिलेख है, जो आदिकाल से मानव विचार लिए हमारे पास यथावत है, जबकि ऐतिहासिक एल्युसियन और आराफिक रहस्य असफल अवशेष हैं। जिस काल में जाति का आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक ज्ञान कुछ कारणों से, जिनको अब निश्चित करना कठिन है, प्रतीकों के मूर्त और भौतिक रूप के आवरण में छिपा दिया गया था। उनका उद्देश्य था कि वे गलत उपयोग न की जा सकें इसीलिए अपटों से उसके अर्थ को छिपा लेते तथा दीक्षितों को प्रकट कर देते थे।
सहज रूप में यह पूर्ण रूप से कहा जा सकता है कि मंत्र ध्वनि साधना है। यथा कान म कुछ कहना, फुसफुसाना, गुप्त वार्तालाप करना, सलाह-मशवरा, वेद संहिता का भाग, कार्य सिद्धि का गुरु, शब्द या समूह, जिससे किसी देवी-देवता का अनुग्रह प्राप्त कर स्वयं सकल्पित लक्ष्य की प्राप्ति संभव हो। ऐसी अलौकिक शक्ति साधना को ही मंत्र कहा जाता है। मंत्र शक्ति एक गुप्त शक्ति होती है। यह किसी के भी सामने अनायास प्रकट करने योग्य नहीं होती।
इसमें ध्वनि विज्ञान के सूक्ष्म से सूक्ष्मतम सिद्धांत निहित है। नाद की उक्ति का अर्थ भी समझा जा सकता है कि है । यही अर्थ है कि 'नाद' अर्थात ध्वनि ही ब्रह्म है। इस प्रकार यह भी समझा जा सकता है कि है। ईश्वर का अव्यक्त रूप ही ध्वनि है। यही ध्वनि ब्रह्म का नाम है। इस प्रकार य जा सकता है कि मंत्र ही ब्रह्म है। शब्द के महत्व को प्राचीन भारत के ऋषिगण भी पहचानते थे तथा इसको ब्रह्म मानकर, इसकी उपासना विधि निर्धारित करते थे। मंत्र का आधार मानने का मुख्य कारण भी यही है। यही कारण है कि हमारे मूह से
जो ध्वनि निकलती है, उसका कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य होता है। जिस प्रकार शांत तालब में फेंके गए पत्थर से जल तरंग काफी दूर तक फैलती जाती है, उसी प्रकार शब्दों की सुक्श्म
परमाण-तरंगे भी अपना प्रभाव काफी दूर तक छोड़ती हैं तथा ये ध्वनियां एक बार होने पर ब्रह्मांड में निरंतर बिखरती जाती हैं तथा इनका विनाश नहीं होता। यदि रेडियो की भांति इन्हें कैच (Catch) किया जा सके तो प्राचीन कालीन तथा महाभारत या रामायाण कालीन पात्रों के संवाद को पुनः उन्हीं की आवाज में सुना जा सकता है। पाश्चात्य वैज्ञानिक इस दिशा में काफी समय से प्रयोगरत हैं तथा एक दिन अवश्य ही यह तथ्य मनुष्य के सामने आएगा, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इन्हीं मंत्र शक्तियों से अदृश्य प्रेरणाएं उत्पन्न कर मनोवांछित कार्यों की सिद्धि की जा सकती है।
ध्वनियां दो प्रकार की होती हैं—एक सार्थक तथा दूसरी निरर्थक । जिन ध्वनियों को मानव द्वारा समझी या बोली जाने वाली भाषा में उत्पन्न किया जाए तथा उनका सार्थक अर्थ निकले वे सार्थक ध्वनियां व शब्द हैं तथा जिनका किसी भी मानवीय भाषा के शब्दों से संबंद्ध न हो, मात्र ध्वनि हो, जैसे बादलों का गर्जन, शेर का दहाड़ना व किसी वाद्य यंत्रों की आवाजें, हालांकि इनका सांकेतिक भाषा के तौर पर भी उपयोग किया जाता है। यथा सीटी द्वारा नियमबद्ध आवाज उत्पन्न करके सैनिक दूर अंधेरे पहाड़ों, गुफाओं, जंगलों आदि दुर्गम स्थानों में अपनी बातचीत कर लेते हैं। यह भी एक सांकेतिक भाषा के रूप में प्रयुक्त होने का काम करती है। उसी प्रकार मंत्र विज्ञान में ध्वनियों और मंत्रों के साथ-साथ नाना प्रकार की मुद्राओं (शारीरिक संकेतों) का उपयोग किया जाता है। अपनी गूढ़ता के कारण ही मंत्र विज्ञान काफी रहस्यमयी विज्ञान है। यह साधारण व्यक्ति की समझ से बाहर होता है इसलिए। कुछ विशेष जानकार या विशेषज्ञ ही इसका भाव समझते व जानते हैं।
प्राचीन कालीन कितने ही विद्वानों ने अपने शारीरिक व मानसिक रोगों पर ध्वनि। साधना से विजय पाई है। यथा कवि पदमाकर का कहना है कि उन्होंने गंगालहरी नामक स्तोत्र पाठ से कोढ़ जैसी भयानक बीमारी से मुक्ति पाई। कवि मयूर ने सूर्य स्तोत्र से काढ़ से मुक्ति पाई। इससे सिद्ध हो जाता है कि ध्वनि का प्रभाव शरीर ही पर नहीं वरन् हदया पर भी पड़ता है, जिसके कारण रोगी रोगमुक्त हो जाता है। फ्रांसीसी वैज्ञानिक क्यूबे ने ध्वनि के विभिन्न प्रयोग किए तथा ध्वनि द्वारा हृदय एवं मस्तिष्क को प्रभावित करके गाठया का लकवे के कितने ही रोगियों को ठीक कर दिया। ध्वनि के बाद शब्दों को भी मंत्रों का आधार माना गया है। व्यवहार में हम शादी का चमत्कार प्रतिदिन देखते हैं। जिस प्रकार संगीत की ध्वनि से मृत तन्मय हो जाते हैं तथा बीन की धुन सांपों को मोहित कर लेती है। अतः कहा जा सकता है कि शब्द की सामर्थ्य सभी भौतिक शक्तियों से बढ़कर, सूक्ष्म और विभेदन क्षमता रखती है। भारतीय तत्वदर्शियों ने इस बात की जानकारी प्राप्त कर ली थी, तभी उन्होंने मंत्रों का विकास किया। प्राचीन ऋषियों के कथनानुसार शब्दों में अपार शक्ति निहित होती है क्योंकि यह आकाश तत्व से संबंधित है तथा आकाश तत्व अति सूक्ष्म है। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की शक्ति अधिक होती है। जैसे यदि बारूद के ढेर में आग लगाई जाए तो यह सर्र की आवाज के साथ जल उठेगा. परंत यदि इसे सक्ष्म रूप में बदलने की प्रक्रिया गोली या बम में भरकर प्रयोग किया जाए तो अपने सूक्ष्म रूप में अत्यन्त भयानक शक्ति साबित होती है।
आज यह बात वैज्ञानिकों की समझ से परे है कि किस प्रकार शब्दों के संयोजन मात्र से ही भारतीय ऋषिगण सृष्टि का सृजन व विनाश कर लेते थे। इसका मुख्य कारण उनमें ज्ञान की शक्ति तथा तपयोग का बल निहित था, जिससे वे असंभव कार्य को भी संभव बना देते थे। इन्हीं शब्दों की शक्तियों से ही ब्रह्मास्त्र, पशुपतिअस्त्र तथा नारायणास्त्र आदि का निर्माण किया जाता था। जो शक्ति इनमें विद्यमान थी, वह आज के आधुनिक हथियारों में भी निहित नहीं है।
ध्वनि और शब्द के पश्चात अक्षरों का भी अति महत्वपूर्ण स्थान है। कुछ अक्षर स्वयं व्यक्त रूप में क्रियाशील कम, परंतु प्रेरक रूप में अधिक सक्रिय हैं इसलिए शब्दों की रचना में क्रिया एवं क्रियापदों की बहुलता रहती है। प्राचीन भाषाविदों ने इसी तथ्य के आधार पर शब्दों के स्वर तथा व्यंजन उच्चारण का विभिन्नताओं के आधार पर वर्गीकरण किया। इन्हीं अक्षरों को प्रयोजन आधार पर विशेष क्रम में रखकर मंत्रों का निर्माण किया। भारतीय अध्यात्म में प्रकृति की समस्त सत्ता को देवी-देवताओं के रूप में परिकल्पित किया गया है। एक अक्षर (वर्ण) से लेकर दस, बीस, पचास या अधिक अक्षरों के समूह तक के मंत्र बनाए गए। साधक इनमें अपनी आवश्यकता के अनुरूप मंत्रों का प्रयोग कर उचित लाभ उठा सकते हैं।
साधकों को जान लेना चाहिए कि मूल पदार्थ की भांति भाषाओं का मूल भी अक्षर ही है। इन्ह बीज के रूप में आज भी अवस्थित देखा जा सकता है। माला मंचों या अन्यान्य मं! से अधिक शक्ति बीज मंत्रों के जप में होती है। ये बीज मंत्र किसी भाषा या अर्थ को नहीं अटत करते, बल्कि ये सीधे शक्ति को अवतरित होने के लिए उद्दीप्त करते हैं।
हार में जो बात कहने से उसका फल और प्रभाव हमें तत्काल ज्ञात हो जाता है, वह मंत्र सलए नहीं होता क्योंकि भाषा का यह व्यवहार स्थूल-से-स्थूल क्रिया है। जिन शब्दों
जितनी बार दिन में प्रयोग में लाते हैं, उनमें वास्तविक शक्ति न के बराबर रहती अतः क्रिया हमें अधिक करनी पड़ती है। इसके विपरीत मंत्र उसी क्रिया को सूक्ष्म रूप नसिक जगत में प्रबल एवं तीव्र रूप से होने देते हैं। इसी कारण शब्द अपने वास्तविक रूप में योग्य फल देने वाला हो पाता है।
मात्र शब्द ही अपने सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों रूपों में निर्वाह करता है। जैसे अक्षर शब्द है यह क्षरणशील न होने का प्रतीक है। अर्थात शब्द का सूक्ष्म अक्षर अजर-अमर है, यह बह्मा का प्रतीक व ब्रह्म समान है और कभी नष्ट नहीं होता। आज इस तथ्य को सर्वमा लोग भी जानते हैं। एक अक्षर जो 'क्षर' न होने वाला है, वही ब्रह्म है, किन्तु व्यवहार में हम उस शब्द को अक्षर कहते हैं, जो अविभाज्य इकाई किसी प्रकार का क्षरण संभव नहीं है। प्रत्येक अक्षर का अपना वर्ण (रूप) क्षेत्र तथा ग्राहकता होती है। जैसे अमुक वर्ण, अमुक शक्ति का ग्राहक है तो अमुक प्रभाव उत्पन्न
कर सकता है। बीज मंत्रों की रचना इसी सिद्धांत पर की गई है। उसके निरंतर जपर रहने से हमारे शरीर में ऐसी विशेषता आ जाती है, जो विशेष कार्य को करने की शक्ति योग्यता प्रकट करती है। प्रत्येक शब्द एक स्वतंत्र आयाम (डाइमेंशन) है और ऐसे समस्त आयाम मिलकर ही किसी वस्तु का सम्यक एवं अविकल रूप उपस्थित कर पाते हैं। ये क्षमता केवल बीज मंत्रों में ही आ सकती है, शब्द संसार में नहीं।
अभी तक हमने शब्द तथा अक्षरों के विषय में जानकारी प्राप्त की है। अब हम 'मंत्र क्या है?' इस विषय का विस्तृत अध्ययन करेंगे। इस विषय को कितना ही विस्तार दे दिया जाए, कम है। भारतभूमि मंत्रमयी है। यही कारण है कि एक अमेरिकी विद्वत सभा में भारतीय योगी स्वामी विवेकानन्द ने मात्र शून्य विषय पर ही काफी लम्बा व्याख्यान दे डाला। था, जो अपने आपमें आश्चर्यचकित करने वाला है। मां भारती का ओज कितना विशाल व प्रभावशाली है, इसकी कल्पना साधारण बुद्धि से परे है। मंत्र विशिष्ट ध्वनियों का समूह है, जिनमें किसी दैवी शक्ति से वांछित संकल्प पूर्ति के लिए प्रार्थना की जाती है या यूं कह सकते हैं कि विश्व, ब्रह्मांड में व्याप्त अदृश्य शक्ति को अपने अनुकूल बनाने वाली शब्द रचना को ही मंत्र कहा जाता है। इस प्रकार समझा जा सकता है कि धर्म, काम और मोक्ष की पूर्ति करने में सहायक ध्वनियों को मंत्र कहा जाता है। इनका प्रयोग किसी संगीत या वाद्य यंत्र की भांति ही मंत्रों को निश्चित क्रम व लय में, निश्चित समय पर किया जाता है, जिससे उनकी शक्तियों का प्रचण्ड प्रवाह होने लगता है और साधक शक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव डालने में समर्थ हो जाता है। जिस देवता का जो मंत्र है, वह ही उसका स्वरूप है। स्थान भेद, उद्देश्य भेद एवं विचारधारा के भेद से एक ही देव अनेक रूपों में उपासना के योग्य माना गया है। मंत्र सिद्धि के विषय में योग शास्त्र में पतंजलि मुनि ने कहा है कि जन्म, औषधि, मंत्र, तप
और समाधि से उत्पन्न फल सिद्धि कहलाता है। इस सूत्र के अनुसार कुछ साधक पूर्वजन्म के संस्कारों के प्रभाव से जन्म लेते ही सिद्ध बन जाते हैं। कुछ औषधि चूर्ण सेवन करने से सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। कुछ साधक मंत्रों की उपासना से अपने तथा दूसरों के कष्टों के निवारण की सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। बहुत से मनष्य तप द्वारा सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। व। सामान्य भूमिका से ऊपर उठकर अणिमा, लघूमा और गरिमा इत्यादि सिद्धियों को धारण करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरित मानस' में मंत्र की महिमा बताते हुए कहा है कि मंत्र
वर्णों
की
दृष्टि
से
बहुत
छोटे
होते
हैं,
किन्तु
उनसे
ब्रह्मा,
विष्णु
तथा
शिव
भी
वश
में
हो
जाते
हैं।
जैसे
छोटा-सा
अंकुश
महामस्त
गजराज
को
वश
में
कर
लेता
है,
उसी
प्रकार
छोटा-सा
मंत्र
भी
अति
महिमावान
व
चमत्कारी
होता
है।
यह
प्राण
रक्षा
करता
है
तथा
गुप्त
रूप
से
इसका
स्मरण
करने
के
कारण
यह
मंत्र
बन
जाता
है।
यही
कारण
है
कि
जब
मनुष्य
शारीरिक
व
मानसिक
शक्तियों
से
कोई
कार्य
करने
में
असमर्थ
हो
जाता
है
तो
वह
दैवी
शक्तियों
की
सहायता
प्राप्त
करने
हेतु
मंत्रों
का
आश्रय
लेता
है।
ये
अलौकिक
शक्तियां
मंत्रों
में
निहित
मंत्रमयी
होती
हैं
तथा
साधना
के
प्रतिफलस्वरूप
जाग्रत
होकर
स्वयं
साधक
की
मनोकामना
की
पूर्ति
कर
देती
हैं।
इस
प्रकार
स्पष्ट
शब्दों
में
कहा
जा
सकता
है
कि
मंत्र
विद्या
अलौकिक
शक्तियों
अर्थात
देवताओं
को
प्रसन्न
कर
कार्य
सिद्धि
करने
वाली
अलौकिक
विद्या
है।
नियम
मंत्र
साधना
एक
सतत्
प्रक्रिया
है,
जिसमें
लयबद्धता
तथा
मानसिक
शक्ति
की
एकाग्रता
के
साथ-साथ
सांसारिक
मनोवृत्तियों
को
त्यागना
होता
है।
शीशे
पर
जैसे
गुलाब
की
छाया
है
तो
समस्त
दर्पण
पर
मात्र
एक
गुलाब
पुष्प
की
ही
छाया
दिखाई
देनी
चाहिए।
उसमें
किसी
अन्य
वस्तु
या
पदार्थ
की
छाया
नहीं
पड़नी
चाहिए।
यही
कारण
है
कि
अधिकांश
मंत्र
साधना
पवित्र
शिवालय
या
श्मशान
में
करनी
बताई
जाती
है
क्योंकि
इन
स्थानों
पर
साधक
के
मन
में
मंत्र
के
सिवा
कुछ
भी
विचार
नहीं
आते।
ऐसी
प्रकृति
की
लीला
है
कि
वहां
पर
साधारण
व्यक्ति
का
मन
भी
एकाग्रता
को
प्राप्त
कर
लेता
है
तो
एक
योगी
व
साधक
जिसके
हृदय
में
मात्र
अपने
इष्टदेव
व
उनकी
लीला
के
सिवा
अन्य
भाव
पैदा
ही
नहीं
होते
तो
अन्य
विचार
कहां
से
आ
जाएंगे।
अतः
स्थान
के
साथ-साथ
मंत्रों
के
शुद्ध
उच्चारण
का
भी
ध्यान
रखना
परम
आवश्यक
है।
उच्चारण
में
वर्षों
का
न्यूनाधिक्य
होना
माया
के
दोषादि
से
मंत्र
का
प्रतिकूल
प्रभाव
भी
उत्पन्न
कर
सकता
है
इसलिए
साधना
से
पहले
मूल
मंत्र
तथा
अन्य
सहायक
मंत्रों
का
भली-भांति
अभ्यास
करने
के
बाद
ही
इस
दिशा
में
कदम
रखना
चाहिए।
मंत्र
साधना
से
पूर्व
साधक
को
साधना
संबंधी
समस्त
नियमों
को
समझ
लेना
चाहिए।
बौद्धिक,
भौतिक
अथवा
व्यावहारिक
कोई
भी
कार्य
हो,
उसके
लिए
विधि-विधान
अवश्य
निर्धारित
होता
है।
ये
अनुकूल
क्रिया-कलाप
ही
उसे
सफल
बनाने
में
सहायक
होते
हैं।
मंत्र
सिधि
के
लिए
प्रतिबद्धता
और
भी
अनिवार्य
है।
कौन
से
उद्देश्य
के
लिए
कौन-सा
मंत्र
उपयुक्त
होगा
तथा
उसकी
आवश्यक
सामग्री
क्या
होगी,
इन
सबकी
विधिवत
जांच-पड़ताल
तथा
सामाग्रियों
की
शुद्धता
की
परख
करने
के
बाद
ही
साधक
किसी
योग्य
गुरु
के
निर्देशन
मे
अपनी
साधना
का
शुभारम्भ
करे।
मंत्र
साधना
में
किन-किन
कसौटियों
पर
साधक
को
खरा
उतरना
पड़ेगा
तथा
किन-किन
बातों
से
परहेज
करना
होगा,
इन
सब
बातों
पर
हम
पहा
विस्तार
से
वर्णन
करेंगे।
साधक
का
समय
व
साधन
नष्ट
न
हो
और
उनका
प्रयास
लायक
हो
ताकि
जीवन
में
उच्चतम
कामयाबी
हासिल
कर
सके।
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