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Tuesday, 10 December 2019

'औषड़नाथ' का रहस्य



'औषड़नाथ' का रहस्य

औषड़नाथ' शब्द कोई नया नहीं है और जो भी व्यक्ति भारतीय प्राच्य विद्याओं एवं प्राचीन आध्यात्मिक वर्णनों के बारे में जानते हैं, उन्हें अच्छी तरह ज्ञात है कि यह नाम सर्वशक्तिमान सृष्टि के निर्माणंकर्ता 'सदाशिव' का एक नाम है। यह एक अलग बात है कि तन्त्र- विद्या की सिद्धियों के सम्बन्ध में औघड़नाथ तन्त्र का एक विशिष्ट मार्ग रहा है, जिनकी सिद्धि साधनाएं अत्यन्त गोपनीय ढंग से चलती रही हैं । वाममार्गी साधना के इस मार्ग की कुछ सामान्य सिद्धियों के वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं और इसकी आधुनिक तन्त्र- विद्या के साधकों में भी बड़ी महत्ता है। शाबर मन्त्रों एवं मारण, उच्चाटन, मोहन, वशीकरण, शान्ति क्रिया आदि तन्त्र के जो भेद आज बताये जाते हैं, वे भी औघड़नाथ तन्त्र के ही विवरण हैं; जो केवल कुछ सिद्धियों से सम्बन्धित हैं। औषड़नाथ तन्त्र का वास्तविक स्वरूप अत्यन्त विशाल है । आज वाममार्गी तन्त्र, शाबर-तन्त्र में जो कुछ भी उपलब्ध है, यह औघड़नाथ तन्त्र का ही एक अल्प अंश है, जो बाद के गुरुओं द्वारा विकसित किया गया है । औषड़नाथ तन्त्र का प्रारम्भिक स्वरूप अत्यन्त प्राचीन है। और इसमें ऐसी-ऐसी गोपनीय सिद्धियां एवं साधनाएं हैं, जिनका ज्ञान सम्पूर्ण मानवता को विशाल
उपलब्धियां प्रदान कर सकता है। 
ज्योतिष, योग, हस्तरेखा- विज्ञान, शरीर लक्षण विज्ञान, शिवलिंगों एवं शक्तिपीठों की स्थापना, वास्तुशास्त्र की उत्पत्ति इसी तन्त्र के गूढ़ रहस्यों एवं सिद्धान्तों से हुई औघड़नाथ-तन्त्र के प्रवर्तक गुरुओं में सामान्य तथा वाममार्ग के गुरु मच्छन्दर नाथ, गोरखनाथ एवं दत्तात्रेय आदि का नाम ही लिया जाता है; परन्तु यह औघड़नाथ तन्त्र के एक मार्ग अघोर-पंथ के गुरु हैं। इससे पूर्व इस तन्त्र परम्परा में अनेक गुरु एवं मार्ग विकसित हो चुके थे। इस तन्त्र का अर्थ अघोर- तन्त्र से लेना उचित नहीं है। यह औषड़नाथ तन्त्र का एक मार्ग है। वास्तव में, इस ' तन्त्र' के पांच स्वरूप हैं। इसमें पहला सात्विक है, दूसरा तामसी है, तीसरा जीव- विज्ञान पर आधारित है, चौथा वनस्पति-विज्ञान से सम्बन्धित है और पांचवां ध्वनि-विज्ञान है ।
यदि समान्तर प्रवृत्तियों के आधार पर वर्गीकरण में समानता ढूंढी जाये, तो सात्विक तन्त्र और वनस्पति-तन्त्र एक समूह में एवं तामसी तन्त्र और जीव तन्त्र एक समूह में आ जातने हे ध्वनि-विज्ञान का महत्त्व दोनों समूहों में समान है, परन्तु ध्वनि के स्वरूप बदल जाते हैं। सच तो यह है कि ' तन्त्र-विद्या' की उत्पत्ति ही औघड़नाथ-तन्त्र से हुई है। आज तन्त्र के जितने भी प्रयोग एवं खोजों से हम परिचित हैं या जिनके विवरण प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त होने हैं वे औघड़नाथ-तन्त्र से ही निकली या विकसित हुई हैं।

कौन हैं औघड़नाथ?

'औघड़नाथ'-यह उस परमतत्त्व का नाम है, जो इस संसार, अर्थात् ब्रह्माण्डरूपी घट को निर्मित करने वाला तत्त्व है। विज्ञान की भाषा में यह वह ' मूलत्त्व' का नाम है, जिससे पदार्थों की उत्पत्ति हुई है। उपनिषदों में इसे 'त्त्व' कहा गया है। इसे 'परमतत्त्व' या 'परमात्मा' भी कहा गया है। 'परब्रह्म' भी इसे ही कहा गया है। निर्गुण निराकार परमात्मा यही 'तत्त्व' है, जो अनन्त तक व्याप्त है। स्थान का अस्तित्व इसके कारण है। इसका कोई ओर-छोर कहीं नहीं है। यह विश्व के सभी सूक्ष्मतम अस्तित्व से भी सूक्ष्म है और ऊर्जाधाराओं की उत्पत्ति इससे ही होती है, जिससे इस ब्रह्माण्ड का अस्तित्व उत्पन्न हुआ है। इसे वाममार्ग में 'सदाशिव' कहा जाता है। शिव का वह रूप, जो सदा समाधि में रहता है-शान्त निर्विकार, शुन्य रूप । समस्त तेजों और गुणों को उत्पन्न करने वाले 'मूलतत्त्व' का वह स्वरूप, जो अनन्त तक व्याप्त है। अब प्रश्न यह उठता है कि इन्हें' औघड़नाथ' क्यों कहा जाता है। इस सम्बन्ध में कई कथन उपलब्ध हैं। कुछ औघड़नाथ के साधकों का कथन है कि इस तन्त्र के प्रथम प्रवर्तक गुरु औधड़नाथ थे, इसलिए इस तन्त्र' को और 'सदाशिव' को औघड़नाथ कहा जाता है। कुछ का कथन है कि 'औषड़नाथ' का अर्थ 'ब्रह्माण्ड' से सन्दर्भित है इसलिए इन्हें 'औघड़नाथ' कहा जाता है। मैं समझता हूं कि इस नामकरण का कारण चाहे जो भी हो, इस नाम को'सदाशिव का ही दूसरा नाम समझना चाहिए। 'तन्त्र' की उत्पत्ति ' सदाशिव' से ही हुई है, ऐसा प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया है। समसत तान्त्रिक साधक इसी सत्य को मान्यता देते हैं। इनका कहना है कि माता जगदम्बी के आन्र 'शिवजी' ने तन्त्र-शास्त्र का उद्भव किया था। यह कथन अक्षरश: सत्य है, किन्तु इसमें निहित तथ्य वह नहीं है, जो समझा जाता है। हमने इस कथन का मानवीयकरण कर दिया है और इससे अनेक भ्रम उत्पन्न हो गये हैं। माता जगदम्बा का अर्थ इस ब्रह्माण्ड की वह ऊर्जाधारा और उससे बना हुआ सर्किट है, जिससे ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तिधाराओं का उद्भव हो रहा है। यह सर्किट ही जगतजननी जगदम्बा है, जो सदाशिव से ही उत्पन्न होती है । इस जगदम्बा कल्याणी का अस्तित्व 'सदाशिव', अर्थात् 'मूलतत्त्व' से बनता है। इसमें दूसरा कोई तत्त्व नहीं होता। इस सम्पूर्ण सर्किट का निर्माण इस सदाशिव' की धाराओं से ही होता है । इसके अन्दर ऊर्जाधाराओं की जो व्यवस्था उत्पन्न होकर विकसित होती है, वही 'तन्त्र' है और यह तन्त्र 'सदाशिव' के शाश्वत नियमों से उत्पन्न होता है । ये नियम ब्रह्माण्ड से उत्पन्न नहीं होते अपित ब्रह्माण्ड इन नियमों से उत्पन्न होता है। इसीलिए वैदिक ऋषि इन नियमों को 'सनातन धर्म' कहते हैं।
औषड़नाथ-रन्त्र में इसे 'सदाशिव' का प्रसाद माना जाता है। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में यहीँ कथन किया जायेगा कि जगदम्बा के लिए शिव ने तन्त्र का उद्भव किया और उसके 'ज्ञान' हेतु इसका कथन किया। इसका सम्पूर्ण रहस्य इस पुस्तक के अगले अध्यायों में स्पष्ट होगा।

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