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Thursday 28 November 2019

ध्वनि विज्ञान (मंत्र)- Dhawni vigyan


ध्वनि विज्ञान (मंत्र)
Dhawni vigyan
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कालांतर में मंत्र विद्या ने विकसित होकर 'तंत्र' का आयाम प्रस्तुत किया। तंत्र का विकसित रूप ही मंत्र है। कालांतर में यह मंत्र विज्ञान दो भागों में बांटा गया-भौतिक मार्ग एवं आध्यामिक मार्ग। 'मंत्र' का अर्थ है ध्वनि विज्ञान। यह एक अतिसूक्ष्म, जटिल किंतु अवश्य प्रभावशाली साधना पद्धति है। इसके द्वारा संसार में कुछ भी देखा, सुना और किया जा सकता है। मंत्र, तंत्र और यंत्र साधना पद्धतियां प्रभावशाली हैं। तीनों का ही प्राचीन काल में विकास हुआ है।

सर्वांग ओउम् विनियोगाय नमः क्षमः।
मम मायाहि मायाहि त्वरितं चक्षुरोगान् क्षमः॥

मंत्र ध्वनि विज्ञान पर आधारित शुद्ध वैज्ञानिक क्रिया है। प्रत्येक स्वर या ध्वनि का अपना प्रभाव और आघात होता है। बिजली कड़कती है, बादल गरजते हैं तो हम चौंक पड़ते हैं । गोली या बम की आवाज अथवा कोई भी तेज भास हमारे शरीर पर गहरा प्रभाव डालता है और हल्की ध्वनि का साधारण आघात होता है, पर आघात अवश्य ही होता है। यह निर्विवाद सत्य है। ध्वनि की इसी आघात संरचना पर मंत्रों की रचना की गई है।  उदाहरण के लिए आप किसी मंत्र का सस्वर पाठ करें। उच्चारण करते समय नाना प्रकार की ध्वनियां होंगी, आपके फेफडे क्रियाशील होंगे। 'स्वाहा' शब्द में आपका मुंह पूरा खुलेगा। 'ओउम्' में दोनों होंठ खुलकर फिर मिल जाएंगे। 'नमः' में दोनों होंठ मिल-बिछुड़कर रहेंगे। 'शिवाय' में होंठ बिना मिले मात्र ध्वनि रह जाएगी। इसी प्रकार का प्रभाव नाना । उच्चारण का होता है। अतएव सारा का सारा विधान ध्वनि/स्वर विज्ञान पर आधारित है। अतएव तांत्रिक को मंत्र विद्या का भी समुचित ज्ञान होना, आवश्यक है। यंत्र विज्ञान के बाद मंत्र भी तंत्र की एक प्रमुख शाखा है। यह बात भली-भांति समझ लेनी चाहिए। तंत्र शास्त्र में मंत्रों की पृथक-पृथक जातियां बतलाई गई हैं। उनका विवरण
इस प्रकार है-

>एकाक्षरीय मंत्र -कर्तरी                                    >   आठ अक्षरी मंत्र    शूल
>दो अक्षरीय मंत्र- कूची                                   >   नौ अक्षरी मंत्र   वज्र या शक्ति
>तीन अक्षरीय मंत्र -मुद्गर                              >  दस अक्षरी मंत्र परशु
>चार अक्षरीय मंत्र- मूसल                             >    ग्यारह अक्षरी मंत्र चक्र
>पांच अक्षरीय मंत्र- क्रूर                                  >   बारह अक्षरी मंत्र  कुलिश
>छ: अक्षरीय मंत्र -श्रृंखला                             >   तेरह अक्षरी मंत्र  नराच
>सात अक्षरीय मंत्र -क्रकच-                         >    चौदह अक्षरी मंत्र भुशुण्डी

 पंद्रह अक्षर वाला मंत्र 'पद्म' कहलाता है। इसके आगे के सभी अक्षर वाले मंत्र भी 'पद्म' कहलाते हैं। इनका प्रयोग भी अलग-अलग है। मंत्र छोड़न में कर्तरी मंत्रों का प्रयोग होता है जैसे-भजन में मुद्गर, ओम् में मूसल, बंधन में श्रृंखला, धावकर्म में शूल, स्तंभन में वज्र, बंधन में शक्ति, विद्वेषण में परशु, कार्य सिद्धि में चक्र, उत्पीड़न में कुलिश, मारण में भुशुण्डी। यंत्र विज्ञान में कुछ मंत्र विशिष्ट देवी-देवताओं को ही अर्पित कर दिए गए हैं। इस प्रकार यह मंत्र बीज-मंत्र कहलाते हैं। इनका निरंतर जाप करने से संबंधित देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त होती है। वह प्रसन्न होते हैं। तंत्र शास्त्र के अनुसार देवी-देवताओं के प्रमुख बीज-मंत्र नीचे दिए जा रहे हैं। साधकों को चाहिए कि इन मंत्रों को कंठस्थ कर लें और आवश्यकतानुसार इनका प्रयोग करें।

बीज मंत्र                                                                     देवी/देवता    
                          
आं ह्रीं क्रौं          -                                                          भुवनेश्वरी
ॐ ह्रीदुं दुर्गायै नमः           -                                             दुर्गा
महिषमर्दिनी स्वाहा            -                                           महिषमर्दिनी
ॐ दुर्गे दुर्गे रक्षिणिं स्वाहा           -                                   जय दुर्गा
वद वद वाग्वादिनी स्वाहा          -                                     वागीश्वरी
ऐं क्लीं नित्यक्लिन्नान्मे मुञ्चस्व स्वाहा       -                      नित्या
श्रीं ह्रीं क्लीं                                                -                    त्रिपुरा
ॐ ह्रीं हुं खे च छे क्ष स्त्री हुँ क्षे ह्रीं फट्           -                  त्वरिता
ह्रीं नमो भगवती माहेश्वरी अन्नपूर्णे स्वाहा      -                  अन्नपूर्णा
ज्वल, ज्वल शूलिनी दुष्ट ग्रह हुं फट् स्वाहा       -                 शूलिनी
श्रीं                                                            -                  लक्ष्मी
ग्लं                                                                 -         हरिद्रा गणेश
ॐ घृणिः सूर्याय नमः                                -                    सूर्य
ॐ नारायणाय नमः                       -                               विष्णु
ॐ सच्चिदेकं ब्रह्म                         -                             ब्रह्मा
ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरी स्वाहा           -                                 शक्ति
ह्रीं श्रीं क्रीं                                        -                           शक्ति
परमेश्वरी स्वाहा                               -                           शक्ति
क्लीं परमेश्वरी स्वाहा                       -                            शक्ति
ह्रीं श्रीं क्लीं स्वाहा                            -                            शक्ति
 ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा                                   मातंगी

इस प्रकार मंत्रों का अपना महत्व है। यंत्र शक्ति के द्वारा नियत कार्य शीघ्र और अवश्य प्राप्त होते हैं । तंत्र, मंत्र, यंत्र इन ताना माध्यमा से जब कोई कार्य  विशेष किया जाता है तो वह उत्तम और शीघ्र फलदायी होता है । त्रिशक्ति  जब एक साथ किसी कार्य की संपन्नता के लिए प्रयोग में लाई जाएगी तो वह भला कैसे न होगा। आप मंत्रशक्ति में पारंगत होने का प्रयत्न करें। मंत्र शक्ति में के पश्चात् आप शेष दोनों विद्याओं को स्वतः ही समझ जाएंगे।


Mantraतंत्र का इतिहास -Tantra ka Itihas

MANTRA
तंत्र का इतिहास
Tantra ka Itihas
mantra

सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो तंत्र का विवरण वेद-पुराणों से ही मिलना शुरू हुआ। वेद-पुराण संसार के प्राचीनतम ग्रंथ माने गए हैं। इनमें सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन जिस प्रकार से किया गया है, वह स्वयं ही एक तांत्रिक क्रिया है। इसी के अंदर सृष्टि बनी। सारा विवरण बड़े चमत्कारी ढंग से दिया है। फिर हर 'अवतार' के साथ तंत्र जुड़ता गया। ईश्वर 'अवतारी पुरुष' माना गया। वह अद्भुत, अलौकिक माना जाने लगा। सभी उसके गुणगान करने लगे। इस प्रकार तंत्र का इतिहास मानव के जन्म काल से ही चलता आ रहा है। यह नामुमकिन नहीं है कि उस काल में ऐसे 'तंत्र ज्ञान' से संबंधित पुरुष को ईश्वर का रूप दे दिया जाता रहा होगा। जैसा भी रहा हो। तंत्र का वास्तविक इतिहास लिखित रूप में गुरु गोरखनाथ के समय से प्राप्त होता है। मेरा यह विश्वास तो शुरू से ही रहा है कि तंत्र का उद्भव शंकर और काली से है। अपनी बात आगे बढ़ाने से पूर्व गुरु गोरखनाथ की दुहाई देते हुए एक झारा लिख रहा हूं-
"काली काली मां, काली जा बैठी पीपल की डाली
दोनों हाथ बजावे ताली, हाथ में लेकर मद की प्याली
आप पीए वीरों को पिलाए, तेरा वचन न जाए खाली
लगो मंत्र परिभाषा, मेरे गुरु का वचन सांचा
दुहाई गुरु गोरखनाथ की।"
तांत्रिकों का आराध्य देव इन्हीं दो देवताओं को माना गया है। शंकर को पुरुष और काली को शक्ति का स्थान दिया गया है। यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि पुरुष और शक्ति का संयोग ही नए जीव की सृष्टि करता है। बिना इस योग के जीव गत हो ही नहीं सकता। फलत: तंत्र में काम को प्रधानता दी गई है। यह गया है कि ऊर्जा या काम से उत्पन्न ऊर्जा ही तंत्र की शक्ति है।  तंत्र वास्तव में एक शुद्ध विज्ञान है। सच्चाई तो यह है कि यह कोई भी वरदान, अलौकिक शक्ति या रहस्यमयी विद्या नहीं है, सिद्धांतों के साधना पर आधारित एक क्रिया है। जब इस कार्य को (तंत्र को) संपन है तो उसकी क्रिया साधारण मनुष्य की समझ में नहीं आती है। परिणाम देखकर ही चमत्कृत हो उठता है। एक जादूगर अदश्य प्रकार की वस्तुओं की बौछार शुरू कर देता है या एक मामूली कर उन्हें फिर जोड़ देता है, आप उस क्रिया को समझ नहीं चकित रह जाते हैं। जादू से बहुत ही आश्चर्यजनक दीख कुल मिलाकर तंत्र एक विज्ञान है। इसका कार्य क्षेत्र का पर आधारित है। तंत्र की क्रिया दिखाई नहीं पड़ती  । बिना कारण कोई कार्य नहीं हो सकता। तंत्र का भी अपना कुछ सैद्धांतिक आधार है और  इसी कारण जो कुछ क्रियात्मक रूप से सामने आता है, उसका अपना एक आकार होता है। विज्ञान पर्याप्त प्रगति कर चका है। मनुष्य का अपना शरीर भी एक चमत्कार है और वह स्वयं में भी एक शक्ति है। योग की ओर जब मनुष्य का ध्यान गया तो उसका उसे गहरा अनुभव हुआ, मस्तिष्क की असीमित शक्ति का अनुभव हुआ। उसे कुण्डलिनी, इड़ा, सुषुम्रा का रोचक संसार मिला। फिर मनुष्य की ऊर्जा, आभा और मानसिक एकीकरण का चमत्कार सामने आया  तंत्र एक बहुत सूक्ष्म और गहन विषय है।


Wednesday 27 November 2019

APSARA(नाभिदर्शना अप्सरा- Nabhi darshna Apsara)


APSARA
नाभिदर्शना अप्सरा-
Nabhi darshna Apsara

नाभिदर्शना अप्सरा साधना:
यह एक दिन की साधना है, और कोई भी साधक इस साधना को सिद्ध कर सकता है। किसी भी शुक्रवार की रात्रि को यह साधना सिद्ध की जा सकती है। इस साधना को सिद्ध करने के लिए थोड़े बहुत धैर्य की जरूरत है, क्योंकि कई बार पहली बार में सफलता नहीं भी मिल पाती, तो साधक को चाहिए, कि वह इसी साधना को दूसरी बार या तीसरी बार भी सम्पन्न करें, परंतु अगले किसी भी शुक्रवार की रात्रि को ही यह साधना करें।
साधना समय:
यह साधना रात्रि 10 बजे को ही सम्पन्न की जा सकती है, और साधक चाहे तो अपने घर में या किसी भी अन्य स्थान पर इस साधना को सम्पन्न कर सकता है। किसी भी शुक्रवार की रात्रि को साधक सुंदर, सुसज्जित वस्त्र पहने, इसमें यह जरूरी नहीं है कि साधक धोती ही पहिने, अपितु उसको जो वस्त्र प्रिय हो, जो वस्त्र उसके शरीर पर खिलते हों, या जिन वस्त्रों को पहिनने से वह सुन्दर लगता हो, वे वस्त्र धारण कर साधक उत्तर दिशा की ओर मुंह कर आसन पर बैठे। बैठने से पूर्व अपने वस्त्रों पर सुगन्धित इत्र का छिड़काव करें और पहले से ही दो सुंदर गुलाब की मालाएं ला कर अलग पात्र में रख दें। यदि गुलाब क, माला उपलब्ध न हो तो किसी भी प्रकार के पुष्पों की माला ला कर रख सकता है। फिर सामने एक रेशमी वस्त्र पर अद्वितीय 'नाभिदर्शना महायंत्र' को स्थापित करें और केसर से उसे तिलक करें। यंत्र के पीछे नाभिदर्शना चित्र' को फ्रेम में मढ़वा कर रख दें, और सामने सुगन्धित अगरबत्ती एवं शुद्ध घृत का दीपक लगाएं।

संकल्प :
इसके बाद हाथ में जल लेकर संकल्प करें, कि मैं अमुक गोत्र. अमुक पिता का पुत्र, अमुक नाम का साधक, नाभिदर्शना अप्सरा को प्रेमिका रूप में सिद्ध करना चाहता हूं, जिससे कि वह जीवन भर मेरे वश में रहे, और मुझे प्रेमिका की तरह ही सुख, आनंद एवं ऐश्वर्य प्रदान करे। इसके बाद 'नाभिदर्शना अप्सरा माला' से निम्न । मंत्र जप संपत्र करें। इसमें 51 माला मंत्र जप उसी रात्रि को सम्पन्न हो जाना चाहिए. हो सकता है, इसमें तीन या चार घंटे लग सकते हैं। अगर बीच में घुघुओं की आवाज आए या किसी का स्पर्श अनुभव हो, साधक विचलित न हो और अपना ध्यान न हयाएं, अपित् 51 माला मंत्र जप एकाग्र चित्त हो कर सम्पन्न कर। इस साधना में जितनी ही ज्यादा एकाग्रता होगी, उतनी ही ज्यादा सफलता मिलेगी। 51 माला पूरी होते होते जब यह अद्वितीय अप्सरा घुटने से घटना सटाकर बैठ जाए, तब मंत्र जप पूरा होने के बाद साधक अप्सरा माला को स्वयं धारण कर लें, और सामने रखी हुई गलाब की माला उसके गले में पहिना दें। ऐसा करने पर नाभिदर्शना अप्सरा भी सामने रखी हुई दूसरी माला उठा कर साधक के गले में डाल देती है। तब साधक नाभिदर्शना अप्सरा सेवचन लेले कि मैं जब भी अप्सरा माला से एक माला मंत्र जप करूं, तब तुम्हें मेरे सामने सशरीर उपस्थित होना है. और मैं जो चाहूं वह मुझे प्राप्त होना चाहिए तथा पूरे जीवन भर मेरी आज्ञा को उल्लंघन न हो। तब नाभि दर्शना अप्सरा साधक के हाथ पर अपना हाथ रखकर वचन देती है, कि मैं जीवन भर आपकी इच्छानुसार कार्य करती रहूंगी। इस प्रकार साधना को पूर्ण समझें, और साधक अप्सरा के जाने के बाद उठ खड़ा हो। साधक को चाहिए, कि वह इस घटना को केवल अपने गुरु के अलावा और किसी के सामने स्पष्ट न करे
साधना सिद्ध मंत्र -
|| ॐ ऐं श्री नाभिदर्शना अप्सरा प्रत्यक्ष श्री ऐं फट् ।।
उपरोक्त मंत्र गोपनीय है, साधना सम्प, होने पर नाभिदर्शना अप्सरा महायंत्र को अपने गोपनीय स्थान पर रख दें, और अप्सरा चित्र को भी अपने बाक्स में रख दें। गले में जो अप्सरा माला पहनी हुई है, वह भी अपने घर में गुप्त स्थान पर रख दें, जिससे कि कोई दूसरा उसका उपयोग न कर सके। जब साधक को भविष्य में नाभिदर्शना अशरा को बुलाने की इच्छा हो. तब उम महायंत्र के सामने अपमरा माला से उपरोक्त मंत्र की एक माला मंत्र जप कर लें। अभ्यास होने के बाद तो यंत्र या माला की आवश्यकता भी नहीं होती, केवल माला करने पर ही अप्सरा प्रत्यक्ष प्रकट हो जाती है।


Tuesday 26 November 2019

APSARA,(मृगाक्षी अप्सरा साधना-MRIGAKSHI APSARA SADHANA)


APSARA SADHNA

मृगाक्षी अप्सरा साधना-MRIGAKSHI APSARA SADHANA

APSARA

अप्सरा सिद्धि प्राप्त करना किसी भी दृष्टि से अमान्य और अनैतिक नहीं है। उच्चकोटि के योगियों, सन्यासियों, ऋषियों और देवताओं तक ने अप्सराओं और किन्नरियों की साधना की है। यों तो मंत्र महोदधि' आदि अन्य तांत्रिक ग्रंथों में 108 विभिन्न अप्सराओं की प्रामाणिक साधनाएं दी हुई हैं, और उनमें से कई अप्सराओं की साधनाएं साधकों ने सिद्ध की हैं, और उसका लाभ उठाया है। पर हमें 'सुरति प्रिया'वर्ग की अप्सरा साधना का प्रामाणिक विवरण प्राप्त नहीं हो पा रहा था।  अप्सरा साधनाओं के साथ भी यही हुआ कि उन्हें अश्लीलता, ओछेपन, काम वासना का प्रवर्धन करने वाली साधनाएं समझ लिया गया जबकि वस्तु स्थिति तो इसके सर्वथा विपरीत है। सुरति प्रिया एक अप्सरा का भी नाम है और अप्सराओं के एक वर्ग का भी नाम है। मृगाक्षी, इसी सुरति प्रिया वर्ग की शीर्षस्थ नायिका है। सुरति प्रिया का सीधा सा तात्पर्य है जो रति प्रिय हो। रति-प्रिय शब्द का यदि सामान्य अर्थ लगाएं तो वह वासनात्मक ही होगा किंतु इसी रतिप्रिय शब्द में 'सु"लगा कर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि ऐसा क्रीड़ा जो शालीन हो, सुसभ्य हो, आनंदप्रद हो . . . और ऐसा तो तभी संभव हो सकता है जब साधक स्वयं शिष्ट, शालीन, सुसण्य हो।
उसे वह कला आती हो कि कैसे किसी स्त्री से वासनात्मक बिम्बों को प्रकट किए बिना भी मधुर वार्तालाप किया जा सकता है, कैसे वह मधुर नोक झोंक की जा सकती है, जो किसी प्रेमी व प्रेमिका के मध्य सदैव चलती रहने वाली क्रीड़ा होती है। मनाक्षी ती सम्पूर्ण रूप से प्रेमिका ही होती है, मधुर ही होती है, अपने साधक को रिझाने की कला जानती है, उसे तनावमुक्त करने के उपाय सृजित करती रहती है, उसे चिंतामुक्त बनाए रखने के प्रयास करती रहती है। तभी तो संन्यासियों के मध्य मृगाक्षी से अधिक लोकप्रिय कोई भी अप्सरा है ही नहीं। साधकों को यह जिज्ञासा हो सकती है कि कैसे एक ही अप्सरा अनेक अनेक संन्यासियों के मध्य उपस्थित रह सकती है? इसके प्रत्युत्तर के लिए ध्यान रखना चाहिए कि अप्सरा मूलत: देव वर्ग में आती है जो वर्ग अपने स्वरूप को कई-कई रूपों में विभक्त कर सकती है। अप्सरा साधना सिद्ध करने से व्यक्ति निश्चिन्त और प्रसन्न चित्त बना रहता है, उसे अपने जीवन में मानसिक तनाव व्याप्त नहीं होता। अप्सरा के माध्यम से उसे मनचाहा स्वर्ण, द्रव्य, वस्त्र, आभूषण और अन्य भौतिक पदार्थ उपलब्ध होते रहते हैं। यही नहीं अपितु सिद्ध करने पर अप्सरा साधक के पूर्णतः वशवर्ती हो जाती है, और साधक जो भी आज्ञा देता है, उस आज्ञा का वह तत्परता के साथ पालन करती है। साधक के चाहने पर वह सशरीर उपस्थित होती है, यो सूक्ष्म रूप से साधक की आंखों के सामने वह हमेशा बनी रहती है। इस प्रकार सिद्ध की हुई अप्सरा "प्रिया" रूप में ही साधक के साथ रहती है।  मृगाक्षी का तात्पर्य मृग के समान भोली और सुन्दर आंखों वाली अप्सरा से है। जो सुंदर, आकर्षक, मनोहर, चिरयौवनवती और प्रसत्र चित्त अप्सरा है, और निरंतर-साधक का हित चिंतन करती रहती है, जिसके शरीर से निरंतर पद्म गंध प्रवाहत होती रहती है, और जो एक बार सिद्ध होने पर जीवन भर साधक के वश में बनी रहती है। स्वामी जी ने हमें इससे संबंधित तांत्रिक प्रयोग स्पष्ट किया था, जो कि वास्तव में ही अचूक और महत्वपूर्ण है।

किसी भी शुक्रवार की रात्रि को साधक अत्यन्त सुंदर सुसज्जित वस्त्र पहिन कर साधना स्थल पर बैठे। इसमें किसी भी प्रकार के वस्त्र पहने जा सकते हैं, जो सुंदर हों आकर्षक हों, साथ ही साथ अपने कपड़ों पर गुलाब का इत्र लगावे और कानमें भी गुलाब के इत्र का फोहा लगा लें। फिर सामने गुलाब की दो मालाएं रखें और उसमें से एक माला साधना के समय स्वयं धारण कर लें। इसके बाद एक थाली लें, जो कि लोहे की या स्टील की न हो, फिर उस
थाली में निम्न मृगाक्षी अप्सरा यंत्र का निर्माण 'चांदी के तार से या चांदी की सलाकासे या केसर से अंकित करें। 

 मृगाक्षी अप्सरायंत्र:









फिर इस पात्र में , 'दिव्य तेजस्वी मृगाक्षी अप्सरा महायंत्र' स्थापित करें इस यंत्र के चार कोनों पर चार बिन्दियां लगाएं और पात्र के चारों ओर चार घी के दीपक लगाएं, दीपक में जो घी डाला जाए, उसमें थोड़ा गुलाब का इत्र भी मिला दें, फिर पात्र के सामने पांचवां बड़ा सा दीपक घी का लगावें और अगरबत्ती प्रज्जवलित करें तथा इस मंत्र सिद्ध तेजस्वी "मृगाक्षी महायंत्र" पर 21 गुलाब के पुष्प निम्न मंत्र काउच्चारण करते हुए चढ़ाएं।
मंत्र:
|| ॐ मृगाक्षी अप्सरायै वश्यं कुरु कुरु फट् ।।

जब 21 गुलाब के पुष्प चढ़ा चुकें तब प्रामाणिक और सही स्फटिक माला से निम्न मंत्र की 21 माला मंत्र 21दिन तक जप करें, शुक्रवार से लगातार 21दिन तक करे , इस मंत्र जप में मुश्किल से दो घंटे लगते हैं।

गोपनीय मृगाक्षी महामंत्र:

|| ॐ श्रृं श्रैम. मृगाक्षी अप्सरायै सिद्धं वश्यं  श्रैम श्रृं फट् ।।

जब 21 माला मंत्र जप हो जाए, तब वह स्फटिक माला भी अपने गले में धारण कर लें, ठीक इसी अवधि में जब मृगाक्षी अप्सरा कमरे में उपस्थित हो, (साधना करते समय कमरे में साधक के अलावा और कोई प्राणी न हो) तब सामने रखी हुई दूसरी गुलाब के पुष्प की माला उसके गले में पहना दें, और वचन लें कि वह जीवन भर अमुक गोत्र के, अमुक पिता के, अमुक पुत्र (साधक) के वश में रहेगी, और जब भी वह इस मंत्र का ग्यारह बार च्चारण करेगा तब वह उपस्थित होगी, तथा जो भी आज्ञा देगा उसका तत्क्षण पालन करेगी।
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